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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १४३३-१४७४
किन्तु एक ओर तो चार सशन्न सवार और एक ओर अकेला पूरी शस्त्र सामग्री से रहित सांवत । इतना होने पर भी सांवत ने चारों सवारों को धराशायी कर दिया पर सांवत भी सुरक्षित न रह सका। उसके शरीर पर बहुत ही भयङ्कर घाव लग गये परिणाम स्वरूप कुछ ही समय के पश्चात् वह भी स्वर्ग का अतिथि बन गया। सांवत की स्त्री शान्ता ने पतिदेव के साथ चिता में सती होने का आग्रह किया पर पारस के करुणाजनक रुदन एवं बालोचित स्नेह के कारण वह ऐसा करने से सहसा रुक गई। इस समय स्त्री म्वभावोचित निर्बलता बतलाना अपने ही हित एवं भविष्य का घातक होगा ऐसा सोच कर उसने बहुत ही धैर्य एवं वीरता के साथ अपने माल को सुरक्षित कर आगे चलना प्रारम्भ किया। क्रमशः वे फल वृद्धि नाम के एक नगर को प्राप्त हुए उस समय फलवृद्धि नगर में हजारों घर जैनियों के थे। पट्टावलियों के आधार पर यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि धर्मघोष सूरि ने अपने ५०० मुनियों के साथ फल वृद्धि में चातुर्मास किया था । अतः उक्त कथन में संशय करने का ऐसा कोई स्थान ही नहीं रह जाता है।
पारस अपनी माता के साथ सानन्द फलवृद्धि नगर में रहने लगा। उस समय स्वधर्मी बन्धुत्रों के प्रात जाताय महानुभावा का बहुत ही सम्मान एवं आदर था। वे अपने स्वधर्मी बन्धु को अङ्गाजवत् पालन पोषण करते थे व समृद्धिशाली बनाते थे। तदनुसार पारस तो अन्य स्थान से आया हुअा तेजस्वी, होनहार लड़का था । अतः कालान्तर में पारस का विवाह पोकरण जाति के शा० साधु की कन्या जिनदासी के साथ हो गया। वे सब सकुटुम्ब फल वृद्धि में ही आनन्द पूर्वक रहने लगे।
पारस पूर्व सञ्चित कर्मादय के कारण साधारण स्थिति में आ पड़ा था तथापि पारस की माता वीर क्षत्रियाणी एवं जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त की मर्मज्ञ थी। वह पारस के कार्य सहायक बन, उसे सांत्वना प्रदान कर बड़ी ही दक्षता के साथ अपना कार्य चलाया करती थी।
एक समय पारस अर्ध निद्रावस्था में सो रहा था कि अर्द्धरात्रि के समय देवी पद्मावती ने स्वप्नान्तर होकर कहा-पारस ! नगर की पूर्व दिशा में केर के झाड़ के बीच जहां एक गाय का दूध स्वयं सूषित हो जाता है,-भगवान पार्श्वनाथ की श्यामवर्णीय चमत्कारी प्रतिमा है । जिस समय तू उसको जाकर देखेगा,
वणे के पुष्प उस स्थान पर पड़े हुए मिलेंगे। उस प्रतिमा को निकाल कर एक मन्दिर बनवाना व शुभ मुहूते में उसकी प्रतिष्ठा करवाना । इत्यादि
पारस ने सावधान बने हुए मनुष्य के समान देवी की सब बातों को ध्यान पूर्वक सुनी। प्रत्युत्तर में उसने निम्न शब्द कहे-देवीजी ! मैं सत्र कार्य आपकी कृपा से यथावत् कर सकूँगा इसके लिये मैं अपने आपको भाग्यशाली समझंगा पर इस समय मेरे पास इतना अधिक द्रव्य नहीं है कि मैं एक विशाल मन्दिर बनवा सकू देवी ने कहा-तेरे पास क्या है ? पारस बोला-मेरे पास तो खाने के लिये जव मात्र हैं।
देवी-जब तुझे द्रव्य की आवश्यकता हो-एक जष की छाब भर कर रात्रि के समय प्रस्तुत केर के माड़ के नीचे रख आना सो प्रातःकाल होने ही वे सब स्वर्णमय हो जावेंगे। पर याद रखना मेरे ये वचन तेरी माता के सिवाय तू किसी को मत कहना, अन्यथा सुवर्ण होना बन्द हो जायगा । पारस ने भी देवी के उक्त वचनों को 'तथास्तु' कह कर शिरोधार्य कर लिये । देवी भी तत्क्षण अदृश्य होगई।
प्रातःकाल पारस ने सब बात अपनी मासा से कही तो माता के हर्ष का पारावार नहीं रहा । वह सहसा कह उठी-पारस ! तू बड़ा भाग्यशाली है भगवती पद्मावती देवी की तेरे ऊपर महती कृपा है। पारस देवी के बतलाये हुए निर्दिष्ट स्थान पर अब बिना विलम्ब चलें और चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा को अपने घर ले आवें । पारस यथा योग्य पूजा सामग्री और गाजे बाजे के साथ संघ को लेकर देवी के किये हुए संकेत स्थान पर गया। वहां केर के झाड़ के बीच जहां पञ्चवर्ण के पुष्पों का ढेर देखा-भगवान पार्श्वनाथ एवं भगवती पद्मावती की स्तुति कर भूमि को खोदी तो श्यामवर्ण, विशालकाय चमत्कारिक पार्श्व
पारस को स्वप्न में देवी का दर्शन Jain Education International
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