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________________ वि० सं० १०३३-१०७४ ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मा प्रतिमा निकल आई। प्रतिमाजी के बाहिर निकलते ही अष्ट द्रव्य से पूजन कर, जयध्वनि से गगनाङ्गण गुञ्जाते हुए समारोह पूर्वक बधाया। एश्चात् कई लोगों ने मूर्ति को उठाने का प्रयत्न किया पर वह इतनी भारी बनगई कि किसी के उठाये न उठाई जासकी। जब पारस स्वयं उठाने गया तो प्रतिमाजी पुष्पवत् कोमल या भार विहीन हो गई । पारस ने अपने सिर पर भगवान पार्श्व-प्रतिमा को उठाई व गाजे बाजे के साथ बड़े ही उत्साह पूर्वक अपने घर पर लाया । सकल श्रीसंघ एवं नागरिक लोग इस चमत्कार पूर्ण घटना से प्रभावित हो पारस की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे। वे आपस में वार्तालाप करने लगे-पारस बड़ा ही भाग्यशाली है पारस के घर को आज पार्श्व प्रभु ने स्वयं पावन किया है। बस, पारस ने भी चतुर, शिल्पकला निष्णात शिल्पज्ञों को बुलवा कर बावन देहरी वाला विशाल मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया। प्रतिदिन देवी के वचनानुसार एक छाब जव निर्दिष्ट स्थान पर रख आता और प्रातःकाल वापिस स्वर्ण जव ले आता । इस प्रकार देवी की कृपा से प्राप्त द्रव्य की पुष्कलता के कारण भन्दिर शीघ्र ही तैयार होने लगा। भवितव्यता किसी के द्वारा मिटाये मिट नहीं सकती है। यही कारण था कि एक दिन किसी ने पारस से द्रव्य आदान का कारण पूछा तो उसने देवी के बचन को विस्मृत कर सहसा स्वर्ण जब के भेद को बतला दिया। फिर तो था ही क्या ? देवी का कहना अन्यथा कैसे हो सकता ? दूसरे दिन जव स्वर्ण न होकर जव ही रह गये। पारस को इसका बहुत ही पश्चाताप एवं अपनी भूल का दुःख हुआ पर अब उससे होना जाना क्या था ? मन्दिरजी का मूल गुब्बारा, रंग मण्डप शिखर आदि बना पर शेष काम यों ही श्रधूरा रह गया। पारस की माता ने कहा-बेटा चिन्ता करने का कोई कारण हो नहीं है। जितना काम होने का था उतना ही हुआ, अब इसके लिये व्यर्थ ही पश्चाताप न करो। अब तो इस मन्दिर को प्रतिष्ठा करवाकर भाग्यशाली बनो। तीर्थङ्करों की इतनी बड़ी मूर्ति जो अतिथि के रूप में अपने घर पर विराजमान है, गृहस्थ के घर में रह नहीं सकती। इसकी प्रतिष्ठा जल्दी करवाने में ही श्रेय है क्योंकि भविष्य न मालूम क्या कहेगा ? पारसने भी माता के उक्त हितकर कथन को सहर्ष स्वीकार कर लिया और वह प्रतिष्ठाकी सामग्री का संग्रह करने में संलग्न होगया। उस समय प्राचार्य धर्मघोषसूरि ने पांच सौ शिष्यों के साथ फल वृद्धि नगर में चातुर्मास किया था। अतः पारस ने जाकर सूरिजी से प्रार्थना की-प्रभो ! मन्दिर की प्रतिष्ठा करवा कर हमको कृतार्थ कीजिये। सूरिजी ने कहा-पारस ! प्रतिष्ठा करबाने के लिये मैं इन्कार नहीं करता हूँ पर नागपुर विराजित आचार्यश्री रि को भी प्रा मी प्रार्थना पर्वकले आवो-हम सब मिल करके ही प्रतिष्ठा करवावेंगे। अहा! हा! कैली उदारता ? कैसी विशाल भावना ? कितना प्रेम व कैसा उच्चतम आदर्श ? सूरिजी जानते थे कि पारस, उपकेशगच्छीय श्राचार्यों का प्रतिबोधित श्रावक है । अतः ऐसे स्वर्णोपम समय में उन आचार्यों का होना जरूरी है। शासन मर्यादा व व्यवहार उपादेयता भी यही है । सूरिजी के उक्त कथन को लक्ष्य में रख पारस ने नागपुर जाकर आचार्यश्री देवगुप्तसूरि से प्रतिष्ठार्थ पधारने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा-वहां प्राचार्यश्री धर्मघोषसूरिजी विराजते हैं, वे भी तो प्रतिष्ठा करवा सकते थे। पारस-पूज्य गुरुदेव ! मुझे स्वयं आपकी प्रार्थना के लिये आचार्यश्री ने ही भेजा है। ___यह सुनकर सूरिजी बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रार्थना को स्वीकृत कर नागपुर से तत्काल फलवृद्धि की ओर विहार कर दिया । क्रमशः फलवृद्धि के समीप पहुँचने पर वहां के श्रीसंघ एवं आचार्यश्री धर्मघोष सूरि ने अपने शिष्यों के साथ सूरिजी का अच्छा स्वागत किया। इस प्रकार आचार्य द्वय के पारस्परिक अपूर्व वात्सल्य भाव से श्रावकों में भी आशातीत अनुराग मिश्रित सद्भाव का सञ्चार हुआ । इन दोनों आचार्यों के सिवाय फल वृद्धि में और भी बहुत से साधु साध्वी विराजमान थे। अतः उन सबके अध्यक्षत्व में फलवृद्धि नगर में वि० सं० ११८१ माघ शुक्ल पूर्णिमा को भगवान् पर्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़े ही समारोह से करवाई। १४२० प्रभु पार्श्वनाथ की मूर्ति और पारस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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