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वि० सं० ७७८-८३७ }
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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विभवति गुरुसंकटे विचित्य निजगण शासनदवता किलाम्बा ॥१०५ ॥ रजक इह स तेन दर्शितोऽस्य त्वरिततरः स च शीघ्रमेव तेन । निज भटनिवहे समापि धृत्वा प्रतिववले चवलं तदीव वाक्यात् ।।११७॥ इति जिनपति शासनेऽपि सूक्तं गुरुतर दोष मनुद्धतं हि शल्यम् । सुगतमत भृतोनिवर्हणीयाः स्वसृसुत निर्मथनोत्थ रोष पोषात् ॥१३३॥ वचनमिति निशम्प तस्य भूपः सुगतपुरे प्रजिघाय दूतमेषः । अपि स लघु जगाम तत्र दूतो वचन विचक्षण अदृत प्रपञ्च ॥१४२॥ लिखत वच इदंपणे जितो यः स विशतु तप्त वरिष्ट तैलकुण्डे । इति भवतु स्ववीप्सया प्रशंसामिह विदधेऽस्य गुरुर्विचार हृष्टः॥१५०॥ इति वचननिरूत्तरी कृतोऽसौ सुगतमत्त प्रभुरचचार मौनम् । जित इति विदिते जनैनिपेते द्रुततरमेष सुतप्ततैलकुण्डे ॥ १६६ ॥ दृढ़मिह निरपत्यता हि दुःखं गुरुकुल मापमलं मयिक्षतं किम् । इति गदति जगाद तत्र देवीशृणु वचनं मम सुनृवतं त्वमेकम् ॥२०२॥ नहि तव कुल वृद्धिपुण्य मास्ते ननु तव शास्त्रसमूह सन्ततिस्त्वम् । इति गदितवती तिरोदधे सा श्रमणपतिः स च शोक मुत्स सजं ॥२०३।। चिर लिखित विशीर्ण वर्णभग्न प्रविदरपत्र समुह पुस्तक स्थम् । कुशलमतिरिहोद्धधार जैनोपनिषदिकं स महानिशीथ शास्त्रम् ॥२१९।। प्र० च
कादिवेताल प्राचार्य श्री शान्तिसरि गुर्जरप्रान्त में अणहिल्लपुर नाम का धन्य धान्य से समृद्धि शाली एक प्रख्यात नगर था। वहाँ पर कनक के समान कान्तिवाला महान् पराक्रमी भीम नामाङ्कित राजा राज्य करता था।
चंद्रगच्छ रूप सीप के लिये मुक्ता फल समान थारापद्र नाम का प्रख्यात गच्छ था । उस गच्छ में विजय सिंहसूरि इति नामालकृत प्रतिभाशाली आचार्य वर्तमान थे । वे सम्पक चैत्य के समीप वर्ती स्थानों में रहते हुए मय अमृतोपदेश से सदैव भव्य कमल को विकसित करते थे।
पाटण के पश्चिम में उन्नायु नाम का एक प्राम था। वहाँ श्रीमालवंशीय धनदेव नामक श्रेष्टी रहता था। धनश्री नाम की आपके धर्मपत्नी व भीम नाम का एक पुत्र था। इधर श्राचार्य श्रीउन्नायु प्राम में पधारे । भीम बालक के शुभ लक्षणों को देखकर आचार्यश्री ने अपने ज्ञान से यह, जान लिया कि-यह बालक यदि दीक्षित होगा तो निश्चित ही शासनोद्धारक होगा। बस, आदिनाथ भगवान के चैत्य में चैत्यवंदन करके वे तत्काल धनदेव सेठ के यहां गये और भीम बालक की याचना की। माता पिता ने आचार्यश्री के वचनों का सन्मान करते हुए कहा-पूज्यवर ! यदि भीम, आपके कार्य में सायक हो तो गुरु देव ! मैं निश्चित ही कृत कृत्य हूँ । इस प्रकार उनकी अनुज्ञा से सूरिजी ने बालक भीम को दिक्षित कर गुणानुरूप उसका श्रीशान्ति १२२८
वादिवैतालशान्तिपरि
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