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श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १४११-१४३३
करली थी जिससे प्रतिदिन शत्रुञ्जय, गिरनार, सम्मेनशिखर, अष्टापद चम्पा-पावापुरी तीर्थों की यात्रा करके ही भोजन करते थे। सूरिजी पाली से बिहार करके साढेराव आये वहां मन्दिर की प्रतिष्ठा पर धारणा से अधिक लोग बाहर से आये उनके लिये भोजन बनाने में घृत कम होगया इस बात को खबर सूरिजी को पड़ते ही पाली का एक जैनोतर धनिक के यहां से घी मंगवा दिया, जब कार्य समाप्त हुश्रा तो सूरिजी ने कहा कि पाली के व्यापारी के घी के दाम चुकादो। जब सांढेराव वाले पाली जाकर उस सेठ को घृत के दाम देने लगे तो उसने कहा मैंने घृत ही नहीं दिया तो दाम किस बात के लेऊ। पर जब उसने अपने घृत की कोठियां देखी तो उसको सूरिजी के चमत्कार पर महान आश्चर्य हुआ उसने कहा कि संसार में राजदंड, यमदंड, चोरदंड, अग्निदंड और जलदंड हम सहन कर लेते हैं पर मेरी दुकान से एक महात्मा ने घृत मंगवाया वह भी श्रीसंघ के काम के लिये इसके दाम यदि मैं न लेऊं तो मन्दिर प्रतिष्ठा जैसे पुण्य कार्य में मेरा इतना-सा सोर हो जायगा । इस बात की खबर जब सूरिजी को मालूम हुई तो उस भव्य को लघुकर्मी जान, और सेवा में आने पर प्रति बोल देकर जैन धर्मी बनाया।
सूरिजी विहार करते हुए एक दफा चित्रकूट पधारे। जब आगट नगर से राजा अल्लट का मंत्री गुण. धर ने एक मंदिर बनवाया जिसकी प्रतिष्टा के लिये चित्रकोट जाकर यशोभद्र सूरि को लाया और बड़े ही समारोह के साथ प्रतिष्ठा करवाई जिसका राजा पर भी बड़ा भारी प्रभाव पड़ा। एक दफे राजा के साथ सूरिजी एवं संघ चैत्यपरिपाटी करने को चले तो रास्ते में एक अवधूत मिला उसने अपने मुंह का स्पर्श किया इस पर सूरिजी ने दोनों हाथों से मसल दिया जिससे हाथ श्याम हो गये। अवधूत चमत्कार पाक चला गया। इस पर राजा ने पूछा कि अवधून के और आपके क्या संकेत हा, हम समझ नहीं सके। इस पर सूरिजी ने कहा हे राजन् ! उज्जैन नगरी के महाकालेश्वर के मन्दिर में दीपक की अग्नि से चंद्रवा जलने लगा अबधूत ने मुंह स्पर्श कर संकेत किया मैंने विद्या बल से उसे हाथों से मसल कर बुझाया जिससे हाथ नाम होगये राजा ने इस बात की खात्रि करने के लिये अपने आदमियों को उज्जैन भेजे। वहां जाकर उन्होंने ठीक तपास की तो उसी समय उसी टाइम उसी तरह से चंद्रवा जलने का प्रमाण मिला तो फिर वापिस
आकर राजा को सब हाल सुनाया जिससे राजा को गुरु वचनों पर पूर्ण श्रद्धा हो गई। अतः राजा अल्लट ने गुरु से जैन धर्म स्वीकार कर जैन धर्म का पालन करने लगा।
एक दिन श्राघट नगर', रहेट २, कवि लाण' संभरी और भैसर इन पांचों नगरों के संघ प्रतिष्ठा के लिये आये सूरिजी ने सब को एक ही मुहुर्त दिया और कहा कि प्रतिष्ठा के समय में आकर प्रतिष्ठा करवा दूंगा बस, ठीक समय पर विद्याबल से पांच रूप बना कर पांचों जगह एक साथ प्रतिष्ठा करवा दी । जब कविलाण में जन संख्या अधिक होने से नखसुत कुवों का पानी बिलकुल समाप्त हो गया। इस प्रकार ६५ कुवों में सूरिजी ने अथाह जल कर दिया इस चमत्कार को देख राजा प्रजा गुरु के पके भक बन गये।
__ आधाट नगर का एक श्रेष्टिवर्य ने श्रीशत्रुञ्जय का संघ निकाला जिसमें प्राचार्य यशोभद्र सूरि को भी साथ में लिया। संघ क्रमशः अण इनपुर पट्टन के पास पहुँचा तो वहां का राजा मूलराज बड़े हो समारोह के साथ सूरिजी के दर्शनार्थ अाया, सूरिनी ने धर्मोपदेश दिया जिसको सुन राजा ने प्रार्थना की कि हे भगवन् !
आप तो सदैव के लिये पाट्टण में ही निवास कर भव पीड़ितजनों का कल्याण करें । सूरिजी ने उत्तर में कहा कि नरेश! हम निर्ग्रन्थों का ऐसा प्राचार नहीं कि हम एक स्थान पर डी ठहर जायं । तथा बार मकान पवित्र करने को प्रार्थना की कि सूरिजी राज भवन में पधारें। राजा बाहर निकल कर मकान के कपाट बंद कर दिय सू रेजो ने लघुरूप बना कर किवाड़ के छिद्र से निकल कर आकाशगामिनी विद्या से संघ में शामिल हो गये और एक आदमी के साथ राजा को धर्म लाभ कहलाया। राजा ने मकान को देखा तो
१.-आघट नगर उहपुर के पा स में,२-रहेट शायद रोहट या करहेट होगा,३-साकम्बरी ४-भैसरोड होगा।
पांच रुपकर पांच प्रातष्ठाए करवाई Jain Education International
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