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________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०६०-१०८० यही आन्तरिक इच्छा है कि इस भयंकर समय में उदारता से स्वोपार्जित द्रव्य का उपयोग करें । पुत्र के ऐसे वचनों को सुन कर सलखण को भी अलौकिक हर्ष का अनुभव हुआ कारण वे प्रारम्भ से ही सहृदयी, दानी एवं दयालु पुरुष थे । पुत्र के कथनानुसार सलखण ने अपने योग्य मनुष्यों के द्वारा स्थानर पर अन्न एवं घास का ऐसा प्रबंध करवा दिया कि--बिना किसी भेद भाव के खुल्ले दिल से जन समाज को अन्न एवं पशुओं के लिये पास दिया जाने लगा। जहां जिस भाव मिले वहां से-उस भाव अन्न एवं घास मंगवा कर देश वासी भाइयों के प्राण बचाना उन्होंने अपना कर्तव्य बना लिया। यह कार्य कोई साधारण कार्य नहीं था। इसमें पुष्कल द्रव्य का व्यय, उत्कृष्ट उदारता, और कुशल कार्यकर्ताओंको श्रावश्यकता थी। शा० सलखण के पास तो सब ही साधन विद्यमान थे फिर वे पुन्योपार्जन करने में कब चूकने वाले थे ? साथ ही खेमा जैसे दयावान पुत्र की जबर्दस्त प्रेरणा-फिर तो कहना ही क्या ? सलखण ने लाखों नहीं पर करोड़ों रुपयों को व्यय करके महाभयंकर, दारुण, जन संहारक दुष्काल को सुकाल बना दिया । मनुष्य एवं पशु भी अन्तःकरण पूर्वक सलखण एवं खेमा को श्राशीर्वाद देने लगे। राजा एवं प्रजा, सलखण और खेमा की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगी और उनको नगर सेठादि कई उपाधियाँ भी प्रदान की। कहावत है-'समय चला जाता है पर बात रह जाती है ।' लक्ष्मी का स्वभाव चंचल है; वह किसी के साथ न चली है और न चलने वाली ही है जिन महानुभावों ने साधनों के होते हुए इस प्रकार देश सेवा कर अमर यश कमाया है उन्हीं की धवलकीर्ति कोटि कल्प लौं अमर बन जाती है। इन्हीं महापुरुषों में ये हमारे चरित्र नायक शा. सलखण और खेमा एक हैं । इनका इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं । इस महाजन संघ में एक सलखण ही क्या पर ऐसे अनेकों नर रत्न होगये हैं कि जिन्होंने समय२ पर इस प्रकार देश सेवा करने का अमर यश सम्पादन किया है। इन्हीं कारणों से प्रेरित हो तत्तद्देशीय राजा, महाराजा एवं नागरिकों ने ऐसे नरपुङ्गवों को नगरसेठ, पंच चोवटिया एवं टीकायत आदि पद प्रदान किये । ये सब पद तो उनके साधारण जीवन के दैनिक कृत्यों के ही सूचक थे पर इन सब कार्यों से भी कई गुने महत्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा किये गये कि उनके द्वारा प्राप्त वे पद आज भी उनकी संतान के लिये यथावत् विद्यमान हैं। खेमा ज्यों ज्यों बढ़ा होता जाता था । त्यों२ सेठानी सरजू के ह्रदय का अधैर्य बढ़ता जाता था। कभी २ मोह के वश अधैर्य हो वह सेठजी को कहदेती कि -- क्या खेमा की शादी नहीं करनी है ? सेठानी के इन वचनों का उत्तर सेठजी इन्हीं शब्दों में देते कि खेमा की शादी १५ वर्ष की वय के पश्चात् की जायगी। सेठानीजी ! क्यादेवी के मन को आप भूल गये हैं ! देवी के बचनों का स्मरण करते ही सेठानी कांप उठती। उसके हृदय में नाना प्रकार की तर्क वितर्कणाएं प्रादुर्भूत होती । आशा निराशा का भयंकर द्वन्द्व मच जाता । उसके हृदय क्षेत्र में दो अलौकिक शक्तियों का तुमुल संग्राम प्रारम्भ होता । वह अपने विचारों को स्थिर नहीं कर पाती । फिर भी दबे हुए शब्दों में कहती- भले ही खेमा का विवाह सोलह वर्ष की वय में करना पर खेमा अब बड़ा हो गया है अतः वाग्दान- सम्बन्ध ( सगाई ) तो कर लीजिये । इससे पुत्र वधु के मुंह देख नव मास के थाके ले को दूर करू । सेठानी की इन सब बातों को सुनते हुए भी वे इन मोह पोषक बातों से सर्वथा उदासीन थे । उनको देवी कथित वचन सदा स्मृति में ताजे ही रहते थे। वे स्वयं संसार से निर्लेप एवं विरक्त थे। देवी के वचनों पर अटल विश्वासी थे। जन संहार दुकाल में खेमा की उदारता १०६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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