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वि. सं. ६६०.६८.]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
एक समय धर्मप्रचार करते हुए धर्मप्राण भाचार्य श्रीसिद्धसूरि के चरण कमल, पद्मावती की ओर हुए । इस बात की खबर मिलते ही जनता के हर्ष का पार नहीं रहा । शा० सलखण ने सवालक्ष द्रव्य व्ययकर सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया । सूरिजी ने मङ्गाचरण के पश्चात् थोड़ी पर सोरगर्मित देशना दी । जनता पर इसका पर्याप्त प्रभाव पड़ा।
इस प्रकार सूरिजी का व्याख्यान क्रम प्रारम्भ ही था। इधर खेमा को भी पन्द्रवा वर्ष पूर्ण होने वाला ही था अतः ठानी ने खेमा को सूरिजी के यहां आ जाने की सख्त मनाई कर दी थी। पर खेमा को तो आचार्यदेव के पास आना, जाना, व्याख्यान श्रवण करना बहुत ही रुचिकर प्रतीत होता था अतः माता के मना करने पर भी उसने अपने आने जाने का क्रम बंद नहीं किया । सूरिजी ने भी खेमा की भाग्य रेखा को देखकर यह अनुमान कर लिया था कि-खेमा, बड़ा ही होनहार, भाग्यशाली एवं दीक्षा लेने पर शासन का उद्योत करने वाला होगा ।
एक समय सूरिश्वरजीने वैराग्य की धून में संसार परिभ्रमन एवं नारकीय दुखों का वर्णन करते हुए फरमाया कि-जिन लोगों ने सांसारिक पौद्गलिक सुखों में सुख माना है; वे लोग स्वल्पकालीन सुखों में मोहित हो दीर्घकालीन दुःखों को खरीद कर लेते हैं । महानुभावों ! मनुष्य एवं तिर्यञ्च के दुःस्त्रों को तो हम प्रत्यक्ष में देख ही रहे हैं पर इससे भी अनंत गुणें दुःख नरक में प्राप्त हुए जीव को सहन करने पड़ते हैं। उन दुःखों के वर्णन का साक्षात् चित्र तो केवल ज्ञानो भगवान् किंवा अतिशय ज्ञानधारी महात्मा ही खेंच सकते हैं । हां उनके कथानानुसार अल्पज्ञ व्यक्ति भी स्वमत्यनुकूल यत्किञ्चित रूप में उन भावों को कथन कर सकते हैं परन्तु वे साक्षात ज्ञानियों के समान उसका वर्णन करने में सर्वथा असमर्थ ही हैं । देखिये अनुभवी पुरुषों ने अपने उद्गार किस प्रकार व्यक्त किये हैं:जरामरणकन्तारे चाउरन्ते भयागरे । मएसोढाणिभीमाणि, जम्माणिमरणाणिं य ॥ १ ॥ जहाइहं अगणी उण्हो, एत्तोऽयंत गुणेतहिं । नरएसुवेयणा उण्हा, अस्सायावेइयामए ॥ २ ॥ जहाइहं इमं सीयं एत्तोऽणन्तगुणेतहिं । नरएसुवेयणा सीया अस्सायावेइयामए ॥३॥ कंदन्तो कुंदुकुम्भीसु उढपाओ अहोसिरो। हुयासणेजलंतम्भि पक्कपुव्वोअणन्तसो ॥४॥ महा दवग्गि संकसे, मरुम्मि वइरवालुए। कलम्बवालुयाए य दट्टपुट्यो अणंतसो ॥५॥ रसन्तो कुन्दुकुम्भीसु उड्ढबद्धोअबंधयो । करवतकरकयाइहि छिन पुवोअणंतसो ॥६॥ अइतिक्खकंटगाइण्णे तुंगे सिंबलिपायवे । खेवियं पासबद्धणं कड्ढोकढ्ढाहिं दुक्कर ॥७॥ महाजन्तसु उच्छ्वा आरसन्तो सुभेरवं । पीडितोमिसकम्मेहिं पावकम्मो अणंतसो ॥८॥ कुवंतो कोलसुणएहिं सामेहिं सवलेहिं य । पाडिओ फालिओ छिन्नो विप्फुरन्तो अणेगसो॥९॥ असीहिं यअसीवण्णेहिं भल्लीहिं पट्टिसेहिंय । छिन्नो भिन्नो विभिन्नोय ओइण्णो पावकम्मुणा ॥१०॥ अवसो लोह रहे जुत्तो, जलन्ते समिलाजुए । चोइओनुत्तजुनेहिं रोझोवा जह पाडिओ ॥११॥ हुयामणे जलंतम्मि चियासु महिसो विव । दढ्ढो पक्को य अवसो, पावकम्मेहिं पाविओ ॥१२॥ वला संडासतुण्डेहिं लोहतुण्डेहिं पक्खीहिं । विलत्तो विलबंतहं ढंकगिद्धोहिं ऽणन्तसो ॥१३॥ १०६८
सरिजी का प्रभावोत्पादकव्याख्यान
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