________________
वि० सं० ६६० से ६८० ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सलनण सुन कर मुग्ध होगये। उनकों मालूम नहीं था कि खेमा केवल गुरुजी के शब्दोच्चारण मात्र एवं एक बार सुनने मात्र से ही प्रतिक्रमण सीख चुका है।
गुरु-सलखण ! यदि खेमा दीक्षा अङ्गीकार करेगा तो जैनधर्म का बहुत ही उद्योत करेगा।
सलखण गुरुदेव ! खेमा को आपके चरणों में अर्पण करने का निश्चय इसके जन्म के पहले ही किया जा चुका है । खेमा हमारा नहीं पर श्रापका है। सलखण के इन वचनों को सुन कर उपाध्यायजी को बहुत आनंद हुआ।
सलखण घर पर पाया और खेमा के लिये अपनी स्त्री को कई बातें कही । सेठानी ने कहा-पति देव! खेमा का विवाह जल्दी ही कर देना चाहिये । सेठानी की इच्छा खेमा को मोह पाश में जकड़ कर घर में रखने की थी। उसने भविष्य का विचार किया कि यदि खेमा शादी के बंधन में बंध गया तो सांसारिक भोग विलासों से मुक्त होना उसके लिये कठिन सा होजायगा अतः जितना जल्दी विवाह होजावे इतना ही वह अच्छा समझती थी।
सेठजी -- क्या इस प्रकार के विचारों से देवी के बचनों को असत्य करना चाहती हो ? मैंने तो गुरु महाराज को भी कह दिया कि-खेमा को आपश्री के चरणों में अर्पण करूंगा।
सेठानी-आपतो मेरे हृदय की महत्वाकांक्षाओं को मिट्टी में मिलाना चाहते पर खेमा दीक्षा के लिये तैय्यार होवे तब न ?
__सेठजी-प्रिये ! दीक्षा, कोई जबर्दस्ती का सौदा नहीं है। यह तो अात्मिक-अान्तरिक भावनाओं का परिणाम है । मैंने तो देवी के बचनों पर विश्वास करके ही गुरु महाराज को कहा था । हो, सादी के लिये खेमा १५ वर्ष का हो जायगा फिर इसकी शादी कर दूंगा।
सेठानी-क्या १२ वर्ष की वय में विवाह नहीं किया जा सकता है ?
सेठजी-खेमा को पूछ लिया जायगा । यदि उसकी इच्छा विवाह करने की होगी तो १२ वर्ष की अवस्था में ही विवाह कर दिया जायगा अभी तो खेमा सात वर्ष का है । अतः इस विषय के विचारों में अभी से उलमने से क्या लाभ ?
इस प्रकार दम्पति में परस्पर वार्तालाप हो रहा था। खेमा भी इधर उधर खेलता हुआ सुन रहा था पर वह कुछ भी नहीं बोला । खेमा की बाल चेष्टाए भावि की बधाई दे रही थी।
वि. सं. ६२९ में एक साधारण दुष्काल पड़ा। कई लोगों के पास धान एवं घास का संचय था, अतः गरीब लोगों के निर्वाह के लिये उन याद्र व्यक्तियों ने स्थान २ पर दानशालाऐं वगैरह खोल दी। इससे उस दुष्काल का जन समाज पर इतना बुरा प्रभाव नहीं पड़ा । नये वर्ष की आशा पर लोगों ने जैसे तैसे उस दुष्काल के समय को व्यतीत किया किन्तु दुर्भाग्यवशात् ६३० में तो सार्वभौमिक अकाल पड़ा। जनता में त्राहि त्राहि मच गई । अन्न, जल एवं घास के अभाव में मनुष्य एवं पशुओं को पग पग पर प्राण छोड़ते हुए देख खेमा का दिल दया से उमड़ने लगा। उसने अपने पिता के पास आकर कहा-पूज्यपिताजी अपना यह द्रव्य यदि इस विकट परिस्थिति में भी जन समाज के लिये उपयोगी न हो तो इस द्रव्य का सद्भाव एवं अभाव दोनों समान ही हैं। अपना तो अहिंसा परमोधर्मः सर्वोत्कृष्ट सिद्धान्त है फिर देशका पैसा देशवासी भाइयों की सेवा में काम न पावे तो उस द्रव्य की सफलता ही क्या है ? पिताजी ! मेरी तो
सेठजी और सेठानी का सम्बाद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org