________________
आचार्य कक्कसूरि का जीवन ]
। ओसवाल सं० ११८-१२३७
सिद्ध सारस्वत गुरुदेव ने उत्तरार्द्ध में कहा
___"इस्थघरे हलियवहु सद्दहमित्तच्छणी वसई" इस प्रकार मनोऽनुकूल समस्या पूरी होने से राजा बहुत ही प्रसन्न हुआ ।
एक समय हाथ में दीपक लेकर टेढ़ा मस्तक किये एक स्त्री जा रही थी जिसका कि पति परदेश गया था। राजा ने उसे देख कर पूर्वार्द्ध गाथा कही
पियसंभरण पद्धतंअंसुधारा निवायभीया । गुरु ने उत्तरार्द्ध में कहा
दिज्जइ वंक गीवाइ दीउपहि नायए इस प्रकार समस्या पूर्ति हो जाने से राजा परम हर्ष को प्राप्त हुआ । इस प्रकार प्रति दिन के बादविनोद से राजा का समय बड़े ही श्रानन्द से व्यतीत होने लगा।
एक समय धर्मराज ने एक दूत को श्राम राजा के पास भेज कर कहलाया कि आप मेरे यहां आये पर मैं अज्ञान पने आपका सत्कार नहीं कर पाया जिसका मुझे बड़ा ही रंज है । खैर, अब भी कुछ नहीं हुश्रा है । आपस में युद्ध कर लाखों मनुष्यों को क्यों मरवाया जाय। हमारे यहां बौद्धाचार्य वर्द्धन कुजर नामक एक उद्भट विद्धान है जिसको लेकर हम सीमान्त आते हैं। आप भी अपने विद्वान् को लेकर सीमान्त में आ जाइये और दोनों पण्डितों का आपस में बाद होने दीजिये । इन पण्डितों को हार जीत में ही अपनी हार जीत समझ लीजिये कि जिससे शान्ति पूर्वक समाधान हो जाय । श्रापके पण्डित जीत जाँय तो हमारी हार और हमारे पण्डित जीत जाँय तो आपकी हार । इसकी मजूरी दीजिये । राजा आमने अपनी ओर से मञ्जूरी देदी कारण, आपको बप्पभट्टिसरि पर पूर्ण विश्वास था । दूत का यथोचित सत्कार कर उसे विसर्जित किया । बस, इधर से राजा धर्म वद्धनकुञ्जर बौद्धाचार्य को और इधर राजा श्राम जैनाचार्य बप्पभट्ठिसूरि व मन्त्री सामन्तादि को लेकर सीमान्त प्रदेश पर निर्दिष्ट दिन उपस्थित हो गये दोनों में परस्पर विवाद प्रारम्भ हुआ । बौद्धाचार्य का पूर्व पक्ष था। उसकी ओर से जो कुछ प्रश्न होता बप्पभट्टिसूरि तुरन्त उसका प्रतिकार कर डालते । इस प्रकार ६ मास पर्यन्त बाद चलता रहा । एक समय राजा
आमने पूछा गुरुदेव ! वाद कहाँ तक चलता रहेगा कारण राजकार्यों में इतने सुदीर्घ वादविवाद से हानि होती है । सूरिजी ने कहा गजन् ! मैंने तो आपके विनोद के लिये वाद लम्वा कर दिया है। यदि आपको राज्य कार्यों में हानि होती हो तो लीजिये कल ही बाद समाप्त हो जायगा । इस प्रकार कहने के पश्चात् सूरिजीने सरस्वती का मन्त्र पढ़ा । मन्त्र बल से आकर्षित हो सरस्वती देवी नग्नावस्था में स्नान करती हुई उसी रूप में
आ गई । बप्पमट्टिसूरि के ब्रह्मवत की दृढ़ता देख प्रसन्न हो उन्हें मनोऽनुकूल वर दिया। तत्पश्चात् सूरिजी ने पूछा-देवी ! वादी किसके आधार से अस्खलित वाद करता है ! देवी ने कहा--मेरे वरदान से । सरिजी ने देवी को उपालम्ब दिया कि तू सम्यग्दृष्टि होकर भी असत्य को मदद करती है । देवी ने कहा-आप कल की सभा में सब को मुख शौच करवाना। वादी मुख शौच करेगा तो इसके मुंह की गुटिका गिर पड़ेगी बस फिर क्या है ? आपकी विजय अवश्यम्भाबो है। सरिजी ने पं० वाक्पतिराज द्वारा इस ही तरह करवाया जिससे गुटिका मुंह से निकल गई अतः वह वाद करने में पंगु (असमर्थ) हो गया। तत्काल
Jan E सूरीश्वरजी और बौद्धाचार्य के आपस में For Private & Personal Use Only
१२११
www.jainelibrary.org