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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८८०-१२० ___ शाह खेतसी के संघपतित्व में संघ वापिस लौटकर खटकुप आया और सूरिजी महाराज ने सौराष्ट्रप्रान्त में विहार कर सर्वत्र धर्म प्रचार बढ़ाया। बाद आपने कच्छ भूमि को पावन की वहाँ से सिन्ध भूमि में पदार्पण किया इस प्रकार अनेक प्रान्तों में भ्रमण करते हुए सूरिजी महाराज ने जैनधर्म की खूवही प्रभावना की जो श्राप श्री के जीवन में लिखा गया है और अन्त में श्री शत्रुजय की शीतल छाया में अष्टिगौत्रीय शाह देवराज के महामहोत्सव पूर्वक आचार्य कक्कसूरिने देवी सच्चाविका की सम्मति पूर्वक मुनि राजहंस को अपने पट्टपर अचार्य बनाकर आपका नाम देवगुप्तसूरि रखदिया बाद २७दिन का अनशन एवं समाधि के साथ स्वर्ग पधार गये श्राचार्य देवगुमसूरि महान् प्रभाविक उगते सूर्य की भांति ज्ञानप्रकाश करने वाले धुरंधर आचार्य हुए आपने गच्छ नायकत्व का भार अपने सिर पर लेते ही विजयी सुभटकी भाँति चारों ओर विहारकर आपने विजय डंका वजा दिया था आपश्री जी शत्रुजय तीर्थ से ५०० मुनियों के साथ विहारकर क्रमशः कई प्रान्तों में भ्रमन कर वापिस मरुधरकों पावन बनाते हुए खटकुपनगर पधारे जो आपकी जन्म-भूमि थी वहाँ के राजा-प्रजा ने आपका अच्छा सन्मान किया कारण एक तो आप इस नगर के सुपुत्र थे दूसरे आप स्वमतपरमत के साहित्य का गहरा अभ्यास कर धुरंधर विद्वान बनायेथे तीसरा आचार्यपदसे शोभायमान थे भला नगर में ऐसा कौन हतभाग्य होगा कि जिसको अपने नगर का गौरव न हो अतः क्या राजा क्या प्रजा क्या जैन और क्या जैनतर सब लोग सूरिजी के स्वागत में शामिल थे जब सूरिजी ने नगर प्रवेश कर सबसे पहिले धर्म देशना दी तो सब लोग एक आवज से कहने लगे कि वाहरे धवल तूं ! इस नगरमें जन्म लिया ही प्रमाण है अरे धवल ने अपने मातापिता का कल्याण तो किया ही है पर इसने तो खटकुंपनगर ही नहीं पर मरुधर भूमि को उज्जवल मुखी बनादी है। प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने मारवाड़ के छोटे बड़े ग्राम नगरों में सर्वत्र विहार कर अपनी ज्ञानप्रभा का अच्छा प्रभाव डाला अापने कई मन्दिरों की प्रतिष्टाएँ करबाई कई मुमुक्षुओं को जैनधर्म की दीक्षादी और कई जैनेतरों को जैनधर्म की राहपर लगाकर महाजनसंघ की भी खूब वृद्धि की इत्यादि आपश्री ने जैनधर्म की खूब ही तरक्की की । जिस समय आप श्री का चतुर्मास पद्मावती पुष्कर में हुआ उस समय वहाँ सन्यासियों की जमात आई सूरिजी ने उनके साथ शास्त्रार्थ कर उनमें से कइ ३०० सन्यासियों को जैनधर्म की दीक्षा देकर श्रमण संघमें वृद्धि की थी। इस प्रकार सन्यासियों की दीक्षा होने का मुख कारण वेदान्तियों की हिंसावृति ही थी कारण ज्यों ज्यों जैनोंने अहिंसाका प्रचार को खूब जोरों से बढ़ाया त्यों त्यों ब्राह्मणों ने जहाँ वहाँ यज्ञादि में पशुबली देने रूप क्रिया काण्ड को इतना बढ़ा दिया था कि जनता को,अरुची एवं घृणा आने लग गइ थी इतना ही क्यों पर सन्यासी लोग तो इस प्रकार की घोरहिंसा से चिरकाल से ही विरोध करते आये ये अतः जहाँ जैनाचार्य का संयोग मिलता वे जैनधर्म की दीक्षा स्वीकार कर ही लेते थे। पिच्छले प्रकरण में आप पढ़ आये है कि बहुत से सन्यासियों एवं तापसों ने जैनदीक्षा स्वीकार कर अहिंसा एवं जैनधर्म का खूब जोरो से प्रचार किया हैं । अस्तु । प्राचार्यश्री ने एक समय कार्तिककृष्णाअमावस्या के दिन व्याख्यान में भगवान महावीर के निर्वाण विषयक व्याख्यान करते हुए, पूर्व के पुनीत तीर्थों के वर्णन में वीसतीर्थङ्करों के निर्वाण भूमि तथा चम्पापुरी पावापुरी और राजग्रह नगर के पांच पहाड़ों का वर्णन खूब विस्तार से किया और वहाँ की यात्रा का महत्व आचार्य देवगुप्तसरि और सम्मेत सिखर का संघ ८८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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