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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १३५२-१४११
अतः विचार कर देवी बोली-भगवन् ! अज्ञानता के कारण मार्गस्खलित हो, सुखावह चारु पथ का त्याग कर अरण्य के भयावह, दुःखप्रद, मार्ग से प्रयाण करती हुई मुझ अभागिनी को आपश्री ने आज सन्मार्ग पर आरुढ़ कर बहुत ही उपकार किया है । मैं आज से ही आपकी चरण किकरी-सेविका होकर आपश्री की सेवा में रहने की प्रतिज्ञा करती हूँ। अब से मेरे नाम पर एक भी प्राणी का आघात नहीं हो सकेगा। प्रभो ! मैं व्य घेश्वरी देवी हूँ। श्राप जिस समय मुझे याद फरमागे उसी समय मैं आपश्री की सेवा में उपस्थित हो जाऊँगी। इस पर सूरिजी ने कहा-देवीजी ! शास्त्रकारों ने फरमाया है कि देव योनि में विवेक एवं ज्ञान होता है, यह सत्य है फिर भी मैंने आपको अपनी ओर से अत्यन्त कठोर शब्द कहे इसके लिये आप क्षमा प्रदान करें। साथ ही आपने जो प्रतिज्ञा की है उसके लिये धन्यवाद भी स्वीकार करें। अब से आप वीतराग जिनेश्वरदेव को भक्ति-सेवा किया करें जिससे आपके पूर्वापार्जित अशुभ कर्मों का क्षय होवे और भविष्य के लिये शुभ गति एवं सद्धर्म की प्राप्ति होवे । सूरिजी के उक्त कथन को देवी ने तथास्तु कह कर शिरोधार्य किया । पश्चात् वंदन करके अदृश्य होगई ।
प्रातःकाल इधर तो आचार्यश्री अपने शिष्य समुदाय के साथ प्रतिक्रमणादि क्रिया से निवृत्त हुए और उधर से व्याघ्रपुर नगर के रावगजली एवं अन्य नागरिक लोग खूब सजधज कर उत्साह के साथ भैंसे एवं बकरे की बलि को लिये हुए मन्दिर के समीप आ पहुँचे । जब आगतजन समुदायने मन्दिर में साधुओं को देखे तो उन लोगों ने कहा-महात्माजी ! आप लोग बाहिर पधार जाइये । यहां अभी हम लोग देवी को पूजा करेंगे अतः आपको इतना कष्ट देना पड़ता है। सूरिजी ने कहा-सरदारों ! आप लोग देवी के भक्त हैं और देवी की पूजा करने आये हैं पर ये भैंसे बकरे क्यों लाये हैं ?
सरदार-इससे आपको क्या प्रयोजन है ? हम कहते हैं कि आप मन्दिर से बाहिर पधार जाइये।
सूरिजी-जैसे आप देवी के भक्त हैं वैसे हम इन भैंसे बकरों के भी प्राण रक्षक हैं । इनको मारने तो क्या पर कष्ट पहुँचाने तक भी नहीं देवेंगे, समझे न सरदारों ?
सरदार-महात्मन् ! यदि हम देवी को वल बाकुल न देखेंगे तो देवी कुपित हो हम सब को मार डालेगी।
सूरिजी-यदि आपको देवी के कोप का ही भय हो तो उसका उत्तरदायित्व मेरे ऊपर है। आप निस्संकोचतया इन पशुओं को छोड़दें।
सरदार-पर, आप पर विश्वास कैसे किया जाय ?
सूरिजी-सरदारों ! मैंने देवी को उपदेश दिया और देवी ने भी प्राणिवध रूप बलि को नहीं लेने की दृढ़ प्रतिज्ञा करली है। आप भी निर्भीक होकर इन पशुओं को निर्भीक होकर अभय दान दे देवें।
सूरिजी के उक्त कथन पर एक सरदार को विश्वास नहीं हुआ। उसने एक बकरे के गले में निर्दयता पूर्वक छुरा चला ही दिया । पर देवी की प्रेरणा से वह घाव बकरे के गले में न लग कर स्वयं मारने वाले सरदार के गले ही में लग गया। इस चमत्कार पूर्ण दृश्य को देख कर तो सब ही आश्चर्य चकित एवं भय भ्रान्त हो गये । अब तो सूरिजी के कहने पर सब को विश्वास होगया । आचार्यश्री ने भी तत्र उपस्थित राव गजसी आदि क्षत्रिय वग को उपदेश देकर जैन धर्स की दीक्षा से दीक्षित किया। उन्हें अहिंसा धर्म के परमोपासक बनाकर उपकेश वंश में सम्मिलित किया । उनको समझाया कि आप लोगों की कुल देवी व्याघ्र श्वरी है। देवी की पूजा भी कुंकुंम, चंदन, श्रीफल, मोदक आदि सात्विक पदार्थों से ही की जाती है न कि प्राण बध रूप विभत्स्य बलि से।
इस घटना का समय वंशावली निर्माताओं ने वि० सं० १००६ का लिखा है। रावगजसी की वंशावली निम्न प्रकारेण हैसूरिजी देवी के मन्दिर में
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