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वि० सं० १५२-१०११]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
बना लँगी। देवी के कोप मिश्रित कठोर वचों को सुनकर आचार्यश्री ने कहा-देवीजी! जरा शान्ति रक्खें। जंगल के बहुत से निरपराध मूक पशुओं के मारने पर भी आपकी क्षुधातृप्ति नहीं हुई हो और निर्मल चारित्र वृत्ति के निर्वाहक सुसंयमी साधुओं को भी मारना चाहती हो तो मार सकती हो पर मुनियों के प्राण लेने के पश्चात् तो आपश्री की तुपा शान्त हो जयागी न । खैर ! आज से ही इस बात की प्रतिज्ञा कर लेवें कि मुनियों के प्राण हरण करने के पश्चात् मैं किसी भी जीव का अपघात नहीं करूंगी। इस प्रकार की भविष्य के लिये प्रतिज्ञा कर आप अपना ग्रास पहिले मुझे ही बनावें । आचार्यश्री के निडरता पूर्ण, उपदेशप्रद स्पष्ट वचनों को श्रवण कर देवी एक दम निस्तब्ध होगई। कुछ क्षणों के लिये वह आश्चर्य विमुग्ध हो विचार संलग्न होगई । पश्चात् धीमे स्वर से बोली-आप लोग हमारे इस मकान में क्यों व किस की आज्ञा से ठहरे ! कल मेरी यहां पूजा होने वाली है अतः आप लोग यहां से शीघ्र प्रस्थान कर देवें।
सूरिजी-ठीक है कल आपकी पूजा होगी तो हम भी आपकी पूजा करेंगे। दवा-नहीं, में आप लोगों की पूजा नहीं चाहती हैं; आप लोग यहाँ से चले जावें।
सूरिजी-देवीजी ! हम जैननिर्ग्रन्थ (मुनि) हैं। रात्रि में गमनागमन करना हमारे लिये शास्त्रीय व्यवहार से एकदम विपरीत है। अतः शास्त्रीय आज्ञा का लोपकर किञ्चित् भय या दवाव से ऐसा करना सर्वथा प्रयुक्त है। इस पर आप तो जगदम्बा माता कहलाती हो । जब पुत्र माता के यहां आवे तब पुत्रों के आगमन से माता को इस प्रकार कोप करना व क्रोधावेश में अपने प्रिय लाडिले पुत्रों का अपमान करना क्या माता के लिये शोभास्पद है ? देवीजी ! जरा ज्ञानदृष्टि से भी विचार कीजिये कि पूर्व जन्म के सुकृतोदय से तो आप को इस प्रकार दिव्य देवर्द्धि प्राप्त हुई है पर इन निन्दनीय, घृणास्पद क्रूर, निष्ठुर, राक्षसीय जधन्य अकरणोय कार्यों को करके भविष्य में कैसी गति प्राप्त करेंगे ? पूर्व जन्म में तो आप बहुत से जीवसत्वों के रक्षक प्रति पालक थे अतः सुरलोक के सुख के पात्र हुए पर इन सब पुण्योत्पादक कार्यों के विपरीत इस देव योनि में जगत् की माता के रूप में भी जीव भक्षक बनकर अपना न मालूम कितना अधःपतन करेंगे। देवीजी ! मेरे इन वचनों को आप किञ्चिन्मात्र भी बुरा मत मानियेगा । मैं आपसे जिज्ञासा वृत्ति पूर्वक पूछना चाहता हूँ कि इस प्रकार के पापाचार या जीव भक्षक कार्यों में आपका क्या स्वाथ साधन होता है ? निरपराध मूक पशुओं की अलक्ष्य बलि लेकर अपने आपको कृतकृत्य मानना कहां तक समुचित है ? देवीजी ! बिना स्वार्थ के या किसी विशेष प्रयोजन के अभाव में तो मन्द मनुष्य भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता फिर
आप तो ज्ञानवान देव हैं। आपको ऐसा कौन गुरु मिला कि पापाचार का उपदेश देकर सीधा नरक का भयङ्कर रास्ता बतलाया। देवीजी ! सच्चा सपूत तो वही हो सकता है, जो अपनी माता का हित इच्छुक हो उसके भावी जीवन को निर्माण करने के सुखमय साधनों को उपलब्ध करे। उसके भविष्य के कण्टकाकीर्ण मार्ग को शतशः प्रयत्नों द्वारा स्वच्छ कर चारु रमणीय बना दे। उसकी गति को सुधारे। अतः मैं भी पुत्र के रूप में आप से यही निवेदन करूंगा कि आप इस जघन्य निकृष्टतम पापाचार को सर्वथा त्याग दें। भविष्य के लिये भी सुदृढ़ प्रतिज्ञा करलें कि-मैं किसी भी जीव का किसी भी प्रकार से बध नहीं करूंगी । इत्यादि ।
देवी ने आचार्यश्री के एक २ शब्द को बहुत ही ध्यान पूर्वक सुना। आचार्यश्री के परमार्थ प्रदर्शक हितप्रद वक्तव्य के समाप्त होने पर देवी ने उन बचनों पर गहरा विचार किया तो सूरिजी का एक २ शब्द सत्य एवं युक्तियुक्त ज्ञात हुआ। वह स्थिर चित्त से विचार करने लगी-जीवों का बदला तो भव भवान्तर में देना ही पड़ेगा। फिर भी इस जीवबध में मेरा तो किञ्चित् भी स्वार्थ नहीं है। केवल मेरे नाम के बहाने ये पाखण्डी लोग हजारों जीवों को अपना स्वार्थ साधन करने के लिये मार कर खा जाते हैं। रुधिर एवं मांस से सनी हुई अस्थि राशियां मेरे पवित्र स्थान पर छोड़ जाते हैं, जिसकी दुर्गन्ध का अनुभव मुझे कई दिनों तक करना पड़ता है । सब तरह से जीव हिंसा में सिवाय हानि के किञ्चित् भी लाभ तो है ही नहीं १३८०
देवी ने जीव हिंसा छोड़दी For Private & Personal Use Only
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