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________________ वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पारणारूप तप कर के सम्यग्दृष्टि देव की आराधना की जिससे आपके पूर्व भव का ग़रीब साधर्मी भाई जो पूर्वभव में आपकी सहायता से धर्म से चलचित्त होता हुआ स्थिर मन होकर अन्त में समाधि पूर्वक मर कर देव हुआ था, उसका उपयोग मुनि सोमसुन्दर की भावना की ओर लगा कि वह अपने पूर्वभव का महान् उपकारी समझ कर मुनि की सेवा में उपस्थित होकर वंदन किया। और अपने अवधिज्ञान से पूर्वभव में किया हुआ उपकार का हाल सुना कर बोला कि पूज्य गुरु महाराज ! मुझे जो देव ऋद्वि प्राप्त हुई है वह आपकी पूर्ण कृपा का ही फल है अब आप कृपा कर मेरे लायक कार्य हो वह फरमाकर मुझे कृतार्थ बनावें? मुनिजी को तो इतना ही चाहता था मुनि ने कहा महानुभाव ! मुझे नन्दीश्वर द्वीप के बावन जिनालयों की यात्रा करने की उत्कृष्ट इच्छा है । इस देव ने कहा कि आप मेरी पीठ पर बैठ जाइये मैं आपको नंदीश्वर द्वीप में लेजा कर उतार दूंगा। आप यात्रा करलें, पुनः यहां पर लेआऊंगा पर स्मरण रखें कि आप वहां अधिक नहीं ठहर सकोगे । बस यात्रा की उत्कठ भावना वाले मुनि देव की पीठ पर सवार होगये देव चलता हुआ मुनिजी से कह रहा था कि अब जम्बुद्वीप का उल्लंघन कर लवण समुद्र पर आये हैं अब घातकी खण्ड पर आये एवं कालोदधि समुद्र पर | पुष्कराद्ध के यहां तक मनुष्य बसते हैं और सूर्यचन्द्र का चराचर भी यहीं तक है आगे पुनः पुष्कराई तदन्तर पुष्कर समुद्र : बाद वारुणी द्वीप, वारुणी समुद्र, क्षीर द्वीप, घृत समुद्र, इक्षु द्वीप, इक्षु समुद्र इनका लम्बा चौड़ा लक्ष योजन जम्बुद्वीप है बाद स्थान दुगुणा करने से इतु समुद्र ८१६२००००० अर्थात् इक्यासी करोड़ बानवें लाख योजन का लंबा चौड़ा है इसके नंदीश्वर द्वीप आता है वह १६३८४८०००० योजन का लम्बा है। जब मित्र देव ने मुनिजी को नन्दीश्वर द्वीप के मध्य भाग में आया हुआ पूर्व के अञ्जनगिरी पर्वत पर उतार दिये। मुनिजी वहां के रत्नमय मन्दिर की रचनादि को देख आँखों में चकाचौंव हो गये पुनः देव के साथ ही साथ मन्दिर का सर्वत्र अवलोकन कर मूल गभारा में आकर चौमुख भगवान के दर्शन चैत्यवन्दन स्तुति कर अपने जीवन को कृतार्थ बनाया मुनि के हर्ष का पारावार नहीं रहा ऐसा मुनि के कहने से प्रतीत हुआ। अस्तु मुनिजी ने वहां पर जितने पदार्थ एवं मन्दिरों की ऊंचाई चौड़ाई वगैरह देखी वह अ वह अपनी शीघ्र गामिनी प्रज्ञा से याद रख वहां की यात्रा कर पुनः देव की पीठ पर सवार हो शीघ्र ही स्वस्थान आगये साथ में वहाँ के देवताओं की की हुई पूजा से एक सुगन्धी पुष्प देवा देश से ले आए थे। देवताने मुनि को अपने स्थ न पर उतार कर बन्दन किया और पुनः प्राथना की कि हे परोपकारी गुरु महाराज! आपका तो मेरे ऊपर असीम उपकार हुआ है अतः भविष्य में मेरे लायक सेवा हो तो स्मरण कीजिए कि आपके ऋण से किंचित उऋण होऊं इत्यादि कह कर स्वस्थान चला गया। बाद आचार्य श्री तथा अन्य साधु निंद्रा मुक हो अपने स्वाध्याय एवं ध्यान में लग गये पर मकान अनुपम पुष्प की सौरभ से एक दम सुवासित होने से वे सोचने लगे कि आज इतनी सुवास कहां से आरही है, क्या आल पास में ऐसे पदार्थ का प्रादुर्भाव हुआ है ? इतने में तो मुनि सोमसुन्दर ने आकर आचायश्री के चरणाविंद में वन्दन करके हस्तवदन और पूर्ण हर्ष के साथ निवेदन किया कि पज्याराध्यदेव । आपकी अतल कृपा से मेरा चिरकाल का मनोरथ सफल होगया है। आचार्यश्री के स्मृतिज्ञान में आ गया कि मुनि की भावना नंदीश्वर की यात्रा की थी शायद किसी देश की सहायता से इसके मनोरथ सफल हो गये हों अतः आचार्यश्री ने सब हाल पूछा और मुनि ने अथ से इति तक सब हाल सनाया। साथ में वड़ों से लाए हये पुष्प के भी समाचार कह कर वह पुष सरिजो के सामने रख दिया जिसकी सौरभ से केवल एक उपाश्रय ही नहीं वरन् आस पास का प्रदेश भी सुगन्ध युक्त बन गया। देवताओं का पुष्प वनस्पति का नहीं था कि जिसकी सुगन्ध स्वल्प समय में ही समाप्त हो जाय पर यह पुष्य तो रनमय था जिसके वर्ण गंध रस और स्पर्श कई अर्से तक कम हो ही नहीं सके। प्रातःकाल होते ही मोहल्ले वालों में इस बात की चर्चा होने लगी पर किसी को पता भी नहीं लगा। १३९८ मुनि सोमसुन्दर-नन्दश्विर द्वीप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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