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________________ वि०सं० ४००-४२४ वर्ष [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास करवा ही देते थे कि श्रद्धा एवं ज्ञान की वृद्धि और धर्म के संस्कार मजबूत जम जाते थे। समय समय तीथों की यात्रार्थ संघ निकलवा कर भी जनता में धर्म उत्साह फैलाया करते थे इत्यादि कारणों से ही वह धर्म वृक्ष अपनी शाखा प्रति शाखा से फला फूला आनन्द में आत्मकल्याण साधन कर रहा है । इत्यादि सूरिजी ने जनता पर अच्छा प्रभाव डाला । जिससे राजा एवं प्रजा के हृदय में धर्म प्रचार की बिजली सतेज होगई। एक समय राव आल्हणदेवादि संघ अग्रसर एकत्र होकर सूरिजी के पास गये वन्दन करके धर्म प्रचार के विषय में बातें कर रहे थे राजा ने कहां पज्यवर ! आपश्रीजी का पधारना हो गया है यहां पर एक सभा की जाय कि जिसमें चतुर्विध श्रीसंघ को बुलाया जाय और धर्म प्रचार के लिये प्रयत्न किया जाय। यहां पर पहले भी कईवार सभाए हुई थी जिसमें अच्छी सफलता मिली थी इस समय भी श्रीसंघ को यही भावना है। केवल आपकी सम्मति की ही जरूरत है। ___ सूरिजी ने फरमाया कि रावजी आपकी भावना एवं धर्म प्रचार की योजना बहुत अच्छी हैं और हमारे और आपके पूर्वजों ने इसी प्रकार धर्म प्रचार बढ़ाया था सभाए धर्म प्रचार का मुख्य कारण हैं मैं मेरी सम्मति देता हूँ कि आप धर्म प्रचार को बढ़ाइये। बस फिर तो क्या देर थी श्रीसंघ ने वहुत दूर दूर प्रान्तों तक आमन्त्रण भेजवा दिया और आगन्तु ओं के लिये सब तरह का प्रबन्ध कर दिया। सभा का समय माघ शुरु पूर्णिमा का रखा जो आचार्य रत्नप्रभसूरि का स्वर्ग रोहण दिन था। समय तीन मास जितना लम्बा रखा गया था कि नजदीक एवं दूर से साधु साध्वियों आ सके । अर्थान् ठीक समय पर कइ तीन हजार साधु साध्धियां उपकेशपुर को पावन बनाया इसमें केवल उपकेशगच्छ के ही साधु साध्वियां आदि नहीं थे पर कोरंटगच्छ एवं वीर सन्तानिये सौधर्मगच्छ के साधु साध्वियों भी शामिल थे तथा श्राद्दवर्ग भी बहुत संख्या में आये थे इसका कारण एक तो भगवान् महावीर की यात्रा दूसरा आद्याचार्य रत्नप्रभसूरि का स्वर्गवास दिन तीसरा हजारों साधु साध्वियों के दर्शन चतुर्थ लाखों स्वधर्मी भाइयों का समागम, पांचवा धर्म प्रचारार्थ सभा, छटा आचार्य रत्नप्रभसूरी की वृद्धावस्था में दर्शन एवं सेवा, चलो ! ऐसा पुनीत कार्य में पिच्छ रहना कौन चाहता था ? अर्थात कोई नहीं चाहता। ठीक समय पर सभा हुई आचार्य रत्नप्रभसूरि ने आद्याचार्य रत्नप्रभसूरि और बाममार्गियों वगैरह मरुधर का इतिहास समझाया और वर्तमान में प्रत्येक प्रान्तों में अपने भ्रमन का हाल सुनाया। बोद्ध लोग अपना प्रचार किस प्रकार बढ़ा रहे है साथ में जैनों का क्या कर्तव्य है जैन श्रमणों को क्या करना चाहिये जैन गृहस्थ जैन धर्म का किस प्रकार सहायक बन सकते है इत्यादि आप श्री ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा मार्मिक शब्दों में इस प्रकार उपदेश दिया कि प्रत्येक मनुष्य के हृदय में जैन धर्म का विशेष प्रचार की भावना जागृत होगई । अतः जैन श्रमण एवं श्राद्धवर्ग उत्साह पूर्वक अर्ज की कि पूज्यवर ! धर्म प्रचार के लिये हम हमारा सर्वस्व अर्पण करने को तैयार है जिस प्रान्त में जाने की आज्ञा फरमावे हम विहार करने को कटिवद्ध तैयार है इत्यादि । भगवान महावीर की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। प्राचार्य रत्नप्रभसूरी ने देवी सच्चायिका की सम्मति लेकर आये हुए ‘घ के समीक्ष मुनि प्रमोदरत्न को अपने पट्ट पर प्राचार्य बना दिया तथा अन्य भी योग्यतानुसार कई मुनियों को पदवियों प्रदान कर उनके उत्साह को बढ़ाया और योग्य स्थान के लिये आज्ञाएँ देदी कि अमुक मुनि अमुक प्रान्तों में विहार कर धर्म प्रचार करे। राजा आल्हणदेव वगैरह उपकेश र का श्रीसंघ अपने कार्य की सफलता देख बड़ा ही आनंद Jain Educenternational [ उपकेशपुरमें श्रमणसमा-सूरिजी का उपदेश For Private & Personar Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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