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वि० सं० १५२-१०११]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
ओर अाकर्पित हुए । तदनन्तर आवसीधे प्राचार्यश्री की सेवा में पधारे । आचार्यश्री ने भी देनी प्रदत्त वरदान के वृत्तान्त को श्रवण कर खूब सन्तोष गगट किया।
इस तरह पजाब प्रान्त में धर्म जागृति को नवीन कान्ति मचाते हुए आचार्यश्री ने भगवान पार्श्वनाथ की कल्याण भूभि स्पर्शनार्थ काशी की ओर विहार किया । श्रीसंघ ने आपश्री का बहुत ही समारोह पूर्वक स्वागत किया। प्राचार्यश्री ने भी जन समाज में धर्म द्योत करने के लिये अपना व्याख्यान क्रम प्रारम्भ ही रक्खा । उस समय काशी के ब्राह्मण जै नेयों से बहुत ही द्वेष रखते थे। उन्हें जैनियों का अभ्युदय, मान, प्रतिष्ठा किञ्चित् भी सहा नहीं हो सकती थी। ये लोग यदा कदा अपनी काली करतूतों का परिचय दे दिया करते थे। तदनुसार एक दिन अाचायश्री के आदेश से काशी क्षेत्र में मुनि विनयरुचि ने व्याख्यान दिया।
आपश्री ने अपने व्याख्यान में षट्दर्शन के स्वरूप को तुलनात्मक दृष्टि से प्रतिपादन करते हुए जैन दर्शन को सर्वोत्कृष्ट सकल साध्य बतलाया। भला-मुनिवय्य की यह सत्य किन्तु ब्राह्मणों को अरुचिकर ज्ञात होने वाली बात काशी नगरी के विप्र समुदाय को कैसे सहन हो सकती थी ? बस, पूर्वापर का विचार किये बिना ही उन्होंने जैनों को अहलान कर दिया कि जैन श्रमणों ने जो मुंह से कहा-वही प्रमाणों से सिद्ध करने को तैर पार हो जाय तो हम उनके साथ शास्त्रार्थ करने को तैय्यार हैं।
। उस समय काशीपुरो में उपकेशवंशियों की घनी आबादी थी। वे सबके सब बड़े व्यापारी एवं लक्षाधीश-कोट्याधीश धर्म प्रिय श्रावक थे। वे लोग आचार्यश्री के परम भक्त, देव, गुरु, धर्म के अनुरागी थे। उन लोगों ने ब्राह्मणों की जाहिर घोषणा के लिये प्राचार्यश्री से शास्त्रार्थ करने के बारे में परामर्श किया तो सूरिजी ने सहर्ष उत्तर दिया इसमें आनाकानी की बात ही क्या है ? शास्त्रार्थ करके धर्म की वास्तविकता को जगजाहिर करना तो हमारा परम कर्तव्य ही है। काशी के ब्राह्मणों से धर्म चर्चा करने में मैं क्या ? मेरे शिष्य ही पर्याप्त हैं। बस, फिर तो था ही क्या? ब्राह्मणों के प्राइवान को जैनियों ने तुरन्त स्वीकार कर लिया। ठीक समय में मध्यस्थों के अध्यक्षत्व में शास्त्रार्थ विषयक निर्णय के लिये एक सभा हुई। इधर से मुनि विनयरुचि
और उधर से ब्राह्मण समाज । दोनों के शास्त्रार्थ का विषय था-वेदविहित हिंसा, हिंसा न भवति । ब्राह्मणों ने अपने पक्ष की प्रमाणिकता के विषय में जो प्रमाण पेश किये थे, मुनि जी ने उन्हीं प्रमाणों को युक्त पुरस्सर खण्डित कर अहिंसा भगवती का इस प्रकार प्रतिपादन किया कि वादियों को अपने आप मस्तक झुकाना पड़ा । इससे जैनधर्ग की बहुत ही प्रभावना हुई । काशी के सकल संघ की अनुमति से मुनि विनपरुचि को पण्डित पद से विभूषित किया तथा श्रीसंघ के अत्याग्रह से प्राचार्यश्री ने वह चातुर्मास वहीं पर कर दिया। इस चातुर्मास कालीन दीर्घ अवधि में जैनधर्म के उद्योत के साथ ही साथ बहत सा ब्राह्मण समाज भी सरिजी का भक्त एवं अनुरागी बन गया।
चातुर्मासानन्तर आचार्यश्री ने यहां से प्रस्थान कर ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए मथुरा नगरी में
ए किया । वहां के श्रीसंघ ने सूरिजी का सुन्दर सत्कार किया। आचार्यश्री का व्याख्यान तो हमेशा होता ही था अतः जैन, जैनेतर सकल जन समाज महरी तादाद में आचार्यश्री के व्याख्यान का लाभ उठाने लग गये । मथुरा में उस समय बो द्वों का बहुत कम प्रभाव था पर त्राह्मणों का पर्याव प्रचार था। सूरिजी के अतिशय प्रभाव के सामने तो वे कुछ नहीं कर सके कारण, उन्होंने पहिले से ही काशी के शास्त्रार्थ की पराजय को सुन रक्खा था। श्रीसंघ के अत्याग्रह से सूरिजी ने वह चातुर्मास मथुरा में ही कर दिया । बलाह गोत्रीय रांका शाखा के शा० सादा, लाच दोनों भ्राताओं ने श्रुतज्ञान को भक्ति निमित्त सवालक्ष रुपये आगम लिखवाने में व्यय किये। इसके सिवाय भी कई प्रकार के उपकार हुए । चार बहिने व ३ पुरुष प्राचार्यश्री के व्याख्यान से प्रभावित हो, भव विध्वंसिनी दीक्षा लेने को उद्यत होगये । चातुर्मास समाप्त होते ही उन महानुभावों को दीक्षा देकर सूरिजो ने यहां से विहार कर दिया। १३६६
For Private & Personal use Only काशीपुरी के ब्राह्मणों को ईर्षामि
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