SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ छूटे तब कितनेक को जकड़ कर बांध लिया उनका सब सराजाम छीन लिया बस चारों ओर से विजय भेरी बाजने लगी जिसको देखकर रावजी को बहुत हर्ष हुआ और यह विश्वास हो गया कि जितनी वीरता एवं कार्य कुशलता महाजनों में है उतनी क्षत्रियों में नहीं है जिन म्लेच्छों को पकड़ लिये थे वे दांतों में तृण लेकर हिन्दुओं की गऊ बन गये कि उनको बन्धन मुक्त कर छोड़ दिये । तत्पश्चात महाजनों की वीरता के उपलक्ष में रावहुल्ला ने कईएकों को जागीरियों और कईएकों को इनाम देकर उनको जो पद पहले थे उन पर नियुक्त कर दिये। ___ एक समय रावहुल्ला पाचार्य सिद्धसूरि के ब्याख्यान में आया था सूरिजी बड़े ही समयज्ञ थे आपने महाराजा उत्पलदेव मंत्री ऊहडादि का इतिहास सुनाते हुए उन की परम्परा के भूपतियों मंत्रियों द्वारा की हुई जैनधर्म की सेवा का खूब जोशीली वाणी द्वारा वर्णन किया और साथ में यह भी फरमाया कि जैनधर्म वीरों का धर्म है और वीर ही मोहनीय कर्म रूपी पिशाच का पराजय कर मोक्ष रूपी अक्षय स्थान को प्राप्त कर सकते हैं इत्यादि रावहुल्ला समझ गया कि मेरी भूल हुई है मैंने वाममार्गियों के धोखे में आकर अपना ही अहित किया है खैर जो हुआ सो हुआ पर अब तो उस भूल को सुधार लेनी चाहिये उसी व्याख्यान में उठ कर रावहृल्ला ने सूरिजी के सामने नम्रतापूर्वक प्रार्थना की कि पूज्य गुरुदेव श्राप श्री का फरमाना सत्त्य है कि संगत से जीव सुधरता है और संगत से जीव बिगड़ता है उसमें मैं भी एक हूँ आपके पर्वजों ने हमारे पूर्वजों को सत्यमार्ग की राह पर लगाये पर मेरे जैसे मोहित ने उस राह को छोड़ अन्य पन्थ का फावलम्बन कर सचमुच ही भूल की है खैर फिर भी आप जैसे परोपकार परायण महात्मा जगत के और विशेष मेरे भले के लिये ही यहाँ पधारे यह मे। अहोभाग्य है । कृपा कर मुझको घोर नरक में पड़ते हुए को श्राप बचा लीजिये, अर्थात् मुझे जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा दीजिये । सरिजी ने कहा कि शास्त्रकार फरमाते हैं कि "वत्थु सहावोधर्मो" वस्तु के स्वभाव को ही धर्म कहा जाता है थोड़ी देर के लिये उसमें भले विकार हो जाय पर आखिर वस्तु अपने धर्म को प्राप्त किये बिना नहीं रहती है आप भी उन वीरों की सन्तान हो कि जिन्होंने पूर्ण शोध खोज के पश्चात् आत्मकल्याण के लिये न रखी परम्परा की परवाह नरखी लोकापवाद की दाक्षिन्यता और न रखा, पाखण्डियों का लिहाज उन्होंने तोनिडाता के साथ जैनधर्म को स्वीकार कर लियाथा इतना ही क्योंपर उन्होंने तो चारों ओर डंके की चोट जैन धर्म का प्रचार भी किया था जिसका ही फल है कि आज मरुधर सदाचार एवं सुख शान्ति और अहिंसामें पूर्ण बन गया है इतना ही क्यों पर मरुधर के आस पास के प्रदेशों में भी मरुधरों का काफी प्रचार हा है मैं आपको धन्यवाद देता हूँ कि आप बिना कुच्छ कोशिश के अपने प्रात्मा का कल्याण करने को निर्डरता पूर्वक तैयार हो रहा हूँ। रावजी ! पूज्यवर! इसमें कोशिश की तो जरूरत ही क्या है दूसरा आपका उपदेश ही इतना प्रभावो. पादक है कि सुनने वाला का बन जसा हृदय हो तो भी पिगले बिना नहीं रहता है यदि कोई सहृदय व्यक्ति तुलनात्मिक दृष्टि से देखे तो उसको भी भू श्रासमान सा अन्तर मालूम होगा कि वहाँ अहिंसा प्रधान धर्म और कहां मांस मदिरा एवं व्यभिचार रूप घृणित धर्म अतः ऐसा कौन मूर्ख होगा कि अमूल्य रत्न मिलने पर भी कंकर को पकड़ रखता हो ? अतः आपश्री कृपा कर मेरे जैसे पामरप्राणी का उद्धार करावे । जैन वीरों की वीरता] ९१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy