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________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास थी । श्राचार्य सिद्धसूरि ने वल्लभी के राजा शिलादित्य को प्रतिबोध कर जैनधर्म का श्रद्धासम्पन्न श्राव बनाया था और उसने शत्रुंजय तीर्थ की भक्तिपूर्वक यात्रा की तथा वहां का जीर्णोद्धार भी करवाया। वल्लभी नगरी के शासन कर्ता शिलादित्य नाम के कई राजा हुए थे । श्राचार्य धनेश्वरसूरि ने भी शिला दित्य राजा को प्रतिबोध कर शत्रुंजय तीर्थ का उद्धार करवाया था तथा श्राचार्यश्री ने वल्लभी नगरी में रह कर शत्रुंजय महात्म प्रन्थ का निर्माण भी किया था जो इस समय विद्यमान है । राजा शिलादित्य की बहिन दुर्लभा देवी के पुत्र जिनायश, यक्ष और मल्ल इन तीनों पुत्रों ने जैनाचार्य जिनानन्दसूरि के पास जैन दीक्षा प्रहण की थी और ये तीन मुनि बड़े ही विद्वान हुए, जिसमें भी श्राचार्य मल्लवादी सूरि का नाम तो बहुत प्रख्यात है । आचार्य मल्लवादीसूरि ने बौद्धो के साथ शास्त्रार्थ कर उनको पराजय किया और शत्रु जय तीर्थ बौद्धों की दाड़ों में गया हुआ पुन: जैनों के अधिकार में करवा दिया। आचार्य नागार्जुन की श्रागम वाचना इसी वल्लभी मगरी में हुई थी । जिस समय आचार्य नागार्जुन ने वल्लभी में श्रमण संघ को आगम वाचन | थी उसी समय खन्दिल सूरि ने मथुरा में आगम वाचना की थी अर्थात् ये दोनों वाचना समकालीन हुई थी । तदान्तर आर्य देवधिगणि क्षमाश्रमणजी और काल-काचार्य ने इसी वल्लभीनगरी में एक संघ सभा कर पूर्वोक्त दोनों वाचनायें में रहा हुआ अन्तर एवं पाठान्तर का समाधान कर आगमों को पुस्तकों पर लिखवाये गये । उपकेशगच्छाचायों ने इस वल्लभी को कई बार अपने चरण-कमलों से पावन बनाई और कई बार चातुर्मास भी किये तथा कई भावुको को दीक्षा भी दी। इसी प्रकार और भी अनेक महात्माओं ने लभ नगरी को पवित्र बनाई थी उस समय सौराष्ट्र एवं लाट देश मेंजैनधर्म का अच्छा प्रचार था राजा प्रजा जैनधर्म का ही पालन करते थे । यही कारण है कि ब्राह्मण-धर्मानुयायों ने इस देश को न्लेच्छों का वासस्थान बतलाकर अपने धर्म के अनुयायियों को वहां जाने आने की मनाई करदी थी । इस विषय में एक स्थान पर ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि "हिन्दू धर्म शास्त्रों में गुजराज को म्लेच्छ देश लिखा है और मना किया है कि गुजरात में न जाना चाहिये (देखो - महाभारत अनुशासन पर्व २९५८-५९ व अ० सात ७२ व विष्णु पुराण अ० द्वितीय ३७) भारत के पश्चिम में यवनों का निवास बताया है। J. R. A. S. S. IV 468 ) । प्रबन्ध चन्द्रोदय का ८७वाँ श्लोक कहता है कि जो कोई यात्रा के सिवा अंग, बंग, कलिंग सौराष्ट्र था मगध मेंत जायगा उसको प्रायश्चित लेकर शुद्ध होना होगा । x x ऐसा समझ में आता है कि इन देशों में जैनराजा थे व जैनधर्म का बहुत प्रभाव था इसलिये ब्राह्मणों ने मना किया होगा । बंबई प्रान्त के प्राचीन जैन स्मारक पृष्ठ १७७ । बल्लभी नरेशों के ताम्रपत्रों से उनके राज्य प्रबन्ध और वंसावली का पता मिलता है जिसका विवरण उपरोक्त पुस्तक में किया गया है पाठकों की जानकारी के लिपे उसके अन्दर से विशेष ज्ञातव्य विवरण यहाँ उद्धृत कर दिया जाता है: १ श्रायुक्तिक या विनियुक्तिक- मुख्य अधिकारी २ इंगिक- नगर का अधिकारी १३ महत्तरी - ग्रामपति ९७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only भी नगरी का राजवंश www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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