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________________ वि० सं०८३७-८९२] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरिजी के निस्पृह, स्पष्ट वचनों को सुनकर रुधिरेच्छुक सवार का मन लज्जा से अवनत होगया । मारे लज्जा के मुंह को नीचा कर वह कहने लगा-महात्मन् ! आप आपने सीधे रास्ते पधार जाइये । आपके खून की हमें किश्चित् भी दरकार नहीं यदि आपको कुछ देने की इच्छा हो तो आप हमें ऐसा शुभाशीर्वाद दीजिये कि हमारे मन की अभीप्सित अभिलाषाएं शीघ्र ही सफलीभूत हो जॉय । आचार्यश्री ने मनोऽभिलाषा पूरक सर्वदुःख विनाशक परम पवित्र धर्मोपदेश दिया। जिससे उन्होंने भी भविष्य के अभ्युदय को आशा पर सूरिजी के चरणों में नत मस्तक हो जैन धर्म स्वीकार कर लिया। सूर्यास्त हो जाने से सूरीश्वरजी वृक्ष के पृष्ठ भाग पर अपना आसन जमा कर प्रतिक्रमणादि मुनीत्व जीवन के नित्य नैमेत्तिक कार्यों में संलग्न हो गये और इधर अड़कमलादि राठोड़ सवार भी वही पर स्थित हो गये। रात्रि में कुंकुंम देवी ने अड़कमल को स्वप्न में कहा कि इस जगह भूमि के अन्दर भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा है अतः प्रतिमाजी को निकाल कर यहां पर शीघ्र ही मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर देना । देवी के उक्त कथन को सुन अड़कमल ने पूछा-आपके कथानुसार मन्दिर तो बनवा दूं पर मेरे पास तदनुकूल द्रव्य नहीं हैं अतः उसके लिये भी तो कोई सुख साध्योपाय होना चाहिये । देवी ने कहा-इस विषय की जरा भी चिन्ता न करो-प्रतिमाजी के पास ही अक्षय निधान भगर्भ में स्थित है उसे निकाल कर अविलम्ब यह शुभ कार्य प्रारम्भ कर देना । अकमल ने देवी के वचनों को 'तथास्तु' कह कर स्वीकार किया। देवी भी अदृश्य हो पुनः स्वनिर्दिष्ट स्थान पर लौट आई। इस स्वप्न के समाप्त होते ही अड़कमल की आंखें खुल गई । वह प्रातःकाल शीघ्र ही उठकर आचार्यश्री के पास आया और परम कृतज्ञता पूर्वक रात्रि में आये हुर स्वप्न का हाल निषेदन किया । आचार्यश्री ने प्रत्युत्तर में फरमाया-अड़कमल । आप परम भाग्यशाली हैं । देवी की आप पर पूर्ण कृपा है। इस कार्य को करके तो अवश्य ही पुण्योपार्जन करना पर देवी का नाम भी साथ ही में सदा के लिये भूमण्डल में अमर कर देना । इस पर अड़कमल ने अत्यन्त दीनता पूर्वक कहा-पूज्य गुरुदेव ! मैं तो एक पामर-अधर्म-जधन्य जीव हूँ। यह सब तो आपकी ही उदार कृपा का परिमाण है ! तत्क्षण ही आचार्यश्री को साथ में लेकर अड़कमल देवी के किये हुए संकेत स्थान पर गया । भूमि को खोदी तो देवी के कहे हुए वचनानुसार एक भव्य पार्श्वनाथ प्रतिमा दीख पड़ी। दूसरे ही क्षण प्रतिमाजी के वाम पाव को खोदा तो एक निधान भी निकल गया। बस, फिर तो था ही क्या ? अड़कमल की सकल हृदयान्तर्हित अभिलाषाएं पूर्ण हो गई । अब तो चतुर शिल्पज्ञों को बुलवाकर एक ओर तो मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया और दुसरो ओर नया नगर बसाने का कार्य । कुंकुंम देवी के दर्शन व स्वप्न के कारण मन्दिर का नाम कुंकुंम विहार व नगर का नाम देवीपुरी रखने का निर्णय किया गया। आचार्यश्री ने उक्त घटना के पश्चात् शीघ्र ही अन्य प्रान्तों की ओर विहार करना प्रारम्भ कर दिया जब तीन वर्षों के पश्चात् मन्दिर का सम्पूर्ण कार्य सानन्द सम्पन होगया तो अड़कमल ने आचार्यश्री को बुलवाकर बड़े धूम धाम से-महोत्सव पूर्वक मन्दिर व नगर की प्रतिष्ठा करवाई। कुंकुंम देवी को कुलदेवी स्थापित की अतः देव गुरू कृपा से देवीपुरी भी थोड़े ही समय में अच्छा आबाद हो गयी । राव अड़कमल के एक पुत्र हुआ जिस का नाम कुंकुंम कुंवर रक्खा । बाद में अड़कमल के क्रमशः पांच पुत्र व तीन पुत्रिय हुई। इसका समय पट्टावली निर्माताओं ने वि० सं०८८५ का लिखा। अड़ कमल का मूल स्थान कनौज था। अड़कमल के पुत्र कुंकुंम ने श्रीशत्रुजय का बड़ा भारी संघ निकाला। स्वधमी बन्धुओं को स्वर्ण मुद्रिकाओं की पहिरावणी दी तथा ओर भी कई शुभ कार्य किये जिससे कुंकुम की धवल कीर्ति दूर २ के प्रदेशों में फैल गई । इन सन्तान परम्परा भो क्रमशः कुंकुम जाति के नाम से पहिचानी जाने लगी। वंशावलियों में आपका परिवार इस प्रकार लिखा है -मनुष्य के पुन्य प्रबल होते हैं तब बिना प्रयत्न ही देव देवी सहायक बन जाते हैं । १३४४ रावजी के पुत्र कुंकुंम का धर्मकृत्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education interational
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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