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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १२३७-१२६२
अड़कमल
ऊकार
घजड़ देव
मंगल (इनके भी वंशावलियों में बहुत परिवार बतलाये हैं)
(इनकी वंशावली बहुत विस्तार से लिखी है)
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सारंग श्रीपति (मंदिर) लाखण
चूड़ा
तोलो पातो (व्यापार) (व्यापार)
खुमान
(शत्रुञ्जय का संघ)
इस प्रकार राव अड़कमल के परम्परा की वंशावली का बहुत ही विस्तार पूर्वक उल्लेख है। क्रमशः कुंकुम गौत्र कालातिक्रमण के साथ ही साथ कई शाखा प्रतिशाखाओं के रूप में भी प्रचलित होगया। जैसे कुंकुम, चोपड़ा, गणधर, कूकड़, धूपिया, वरवटा, राकावाल, संघवी और जाबलिया। उक्त सब ही शाखाएं एक कुंकुम गौत्र की हैं। अतः ये सब ही एक पिता की सन्तान-बन्धुतुल्य हैं। इनकी कुलदेवी कुंकुम देवी है । कोई सच्चायिका को भी इनकी कुलदेवी मानते हैं । वंशावलियों में उपरोक्त जातियों का समय एवं कारण इस प्रकार बतलाया है
१-कुंकुम गौत्र-राव कुंकुम की सन्तान कुंकुम कहलाई। २-चोपड़ा-यह नाम चोपड़ा ग्राम के नाम पर हुआ।
३-गणधर-शाह भैरा ने शत्रुञ्जय का संघ निकाला और वहां पर १४५२ गणधरों का एक पट्ट बन वाया तब से भैरा की सन्तान गणधर जाति के नाम से पहिचानी जाने लगी।
४-फूंकड़-शाह नरसी ने एक लक्ष रुपये देकर मरते हुए कुंकड़े को प्राणदान दिया तब से ही नरसी की सन्तान कुंकड जाति के नाम से प्रसिद्ध हुई।
५-धूपिया-शाह जोगो ने धूप का व्यापार प्रारम्भ किया पर जब मन्दिरजी के लिये धूप बनाने का मौका आता तब इतनी कस्तूरी एंव इत्र डाल देता था कि मन्दिर के आसपास के मकान व महल्ले भी धूष की अपूर्व सौरभ से सौरभशील हो जाते । अतः लोग उन्हें धूपिया २ कहने लगे । कालान्तर में यही जाति के रूप रूड़ शब्द हो गया।
६-वटवटा-शाह नाथो वड़ा ही धर्मात्मा पुरुष था। उसने एक देवी का मन्त्र साधन किया था पर स्पष्टोच्चारण नहीं कर सकने के कारण देवी ने अप्रसन्न हो उसे श्राप दे दिया जिससे वह वटवटा बोलने लगा अतः लोग उसे वटवटा कहने लगे। कालान्तर में उनकी सन्तान के लिये भी वटवटा शब्द रूड़-प्रचलित होगया।
७-रांकावाल-गणधरपुरा के पुत्र के रांका से रांकावाल कहलाने लगे।
८-संघवी-साएव्यपुर से शाह सावत ने श्री शत्रुञ्जय का संघ निकाला और स्वधर्मी बन्धुओं को पांच २ स्वर्ण मुहरें व बढ़िया वस्त्रों की पहिरावणी दी अतः आपकी सन्तान संघवो के नाम से प्रसिद्ध हुई । वीर अड़कमल का परिवार
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