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________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० ही में लाभ कारी है अतः चतुर्मास समाप्त होते ही आस पास के सब साधु एकत्र होगये ५०० मुनि तो आप अपने साथ में चलने वालों को रक्खलिये शेष साधुओं को कुंकुंदाचार्य के पास जाने की आज्ञा देदी और भी कुंकुंदाचार्य को समाचार बहलादिया कि सब साधुओं की सारसंभाल का भार आपके आधीन है इत्यादि । बाद सूरिजी ने दक्षिण की और विहार कर दिया। आपके विहार की पद्वति ऐसी थी कि एक गस्ता से जाते थे तब वापिस लौटते समय दूसरे ही मार्ग आते थे कि इधर उधर के सब क्षेत्रों की स्पर्शना एवं जनता को उपदेश का लाभ मिल जाताथा पट्टावली कर लिखते हैं कि आचार्य श्री ने तीन वर्ष तक उधर विहार किया जिससे जैनधर्म का खूब प्रचार बढ़ाया और वहां विहारकरने वाले मुनियों का उत्साह भी बढ़गया। तत्पश्चात् आपने आवंति प्रदेश में पधार कर उज्जैननगरी में चतुर्मास किया। वहाँ पर खटकुंपनगर का शाह राजसी और आपका पुत्रधवल आया और उसने प्रार्थना की कि प्रभो! आप मरुधर की ओर पधारे। सूरिजी ने कहाँ रानसी मरुधर में कुंकुंदाचार्य विहार करते हैं मेरी इच्छा पूर्व की यात्रा करने की है सब साधु भी पूर्व की यात्रा करने के इच्छुक हैं। राजसी ने कहां पूज्यवर । अापके इस लघु शिष्य ने मन्दिर बनाया है उसकी प्रतिष्ठा करवानी है हम लोगों ने कुंकुंदाचार्य से प्रार्थना की पर आपने फरमाया की मूर्तियों की अंजनसिलाका जैसा वृहद् कार्य तो हमारे गच्छ नायक सूरीश्वरजी ही करवा सकते हैं अतः हम आपश्री की सेवा में उपस्थित हुए है सूग्जिी ने धवल की और देखा तो धवल की भाग्य रेखा होनहार की सूचना देरही थी। राजसी चारदिन ठहरकर सूरिजी का अमृत एवं त्यागवैराग्य मय व्याख्यान सुना । पर सूरिजी के व्याख्यान का धवल पर तो इतना प्रभाब हुआ कि वह संसार से विरक्त होकर सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो! आप शीघही खटकप पधारे जिससे हमलोगों को आत्मकल्याण का समय मिले । सूरिजी ने कहा क्यों धवल ! हम लोग तुम्हारे वहां श्रावें तो सच्चही तु आत्मकल्याण सम्पादन करेगा ? धवल ने कहा पूज्य पाद ! आपके पधारने की ही देरी है पास में बैठा राजसी भी सुन रहा था पर उसने कुछ भी नहीं कहाँ। तथा सूरिजी ने राजसी एवं धवल को विश्वास दिलादिया कि क्षेत्र स्पर्शना हुइतो हम शीघ्रही मरूधर में आवेंगे। राजसी एवं धवल सूरिजी को वन्दन कर वापिस लौटगये । बाद सूरिजो को कुंकुन्दाचार्य की विनयशीलता के लिये अच्छा संतोष हुआ । खैर उज्जैन का चतुर्मास से सूरिजी को अनेक प्रकार से लाभ हुआ चतुर्मास समाप्त होते ही आपने वहां से विहार कर दिया और रास्ते के प्राम नगर में धर्मोपदेश देते हुए। मरुधर एवं षट्कूप नगर की ओर पधारे वहां का श्रीसघ एवं शाह राजसी एवं धबल ने सूरिजी का बड़ा भारी स्वगत किया। उधर से कुंकुन्दाचाय ने सुना की गच्छनायक श्राचार्य कक्कसूरिजी महाराज खटकूप पधार गये है अतः वे भी अपने शिष्यों के साथ सूरिजी को वन्दन करने को टकूप नगर पधारे । सूरिजी ने आपका योग्य सत्कार किया और आपके कार्य कुशलता की सराहना कर आपका उत्साह में खूब वृद्धि की दोनों प्राचार्यों का मिलाप एवं वात्सल्या जनता के दील को प्रफूल्लित कर रहा था। दोनों आचार्यों के अध्यक्षत्व में मुमुक्षु धवल को दीक्षा देकर उसका नाम राजहंस रक्ख दिया बाद इधर उधर भ्रमण कर पुनः खटकुंप पधार कर शाह राजसी के बनाये मन्दिर की एवं मूर्तियों की प्रतिष्ठा धाम धूम से करवाई तत्पश्चात कई अर्सा से दोनों प्राचार्य अपने शिष्यों के साथ उपकेशपुर पधारे। वहां के श्रीसंघ को बड़ी खशी हुई उन्होंने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया भगवान् महावीर एवं आचाय रत्नप्रभसूरि की यात्रा की । सूरिजी का व्याख्यान हमेशाँ होता था। वहाँ पर भिन्नमाल का संघ दर्शनार्थ आया था और उन्होंने चतुर्मास की आचार्य श्री के कर कमलों से दीक्षाएं ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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