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________________ वि० सं० ८३७-८६२ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अर्थात् — पात्र स्थापन, गोच्छक और पात्र प्रति लेखनी; इन तीनों का परिमाण १६ अंगुल का है । पडिला - अढ़ाई हाथ लम्बा और छतीस अंगुल चौड़ा होना चाहिये । रजखाण - वर्तन के प्रमाण से चार अंगुल बढ़ता हुआ होना चाहिये । प्रयोजन - संयमाराधना और जीव रक्षा - तथाहि रमाइरक्खणट्ठा पत्तग ठवणं वि उवइस्संति, होइ पमजण हेउ गुरुछश्रो भाणवत्थाणं || पायपमजण हेउं केसरिया पाए २ इक्किका, गुच्छ पत्तगठवणं इक्किकं गणणमाणेणं ॥ पुफ्फफलोदयस्यरेणु सउण परिहार पायरक्खणट्ठा, लिंगस्स य संवरणे वेश्रोदय रक्खणे पडला ॥ मूसगर उकेरे वासे सिन्हारएयरक्खाणट्टा, हुंति गुणा रत्ताणे पाए २ य इक्केक्कं ॥ अर्थात् - गोचरी लाते समय पात्रों के नीचे घृतादिक का लेप लग जाने से भूमि पर रखने में जीवों की विराधना होती है उसकी रक्षा के लिये अथवा रजसे सुरक्षित रखने के लिये प्रत्येक पात्र के नीचे ऊन का खंड रखना बतलाया है । प्रमार्जन एवं जीव रक्षा के लिये पात्र केसरिया - चरवाली का उल्लेख किया है । पुष्प, फल, रज, रेणु, शकुन के परिहार के लिये व वेदोदय के रक्षण के लिये पडिले का उल्लेख किया है। मूषकोपद्रव व रज वगैरह से सुरक्षित रखने के लिये तथा वर्षा ऋतु में पकाय के जीवों की रक्षा के लिये एक २ पात्र में एक २ रजताण तथा पात्र बन्धन पर गुच्छा रखने का कहा । ८- ६-१० - चादर - इसका परिमाण - कप्पा श्रायपमाणा श्रृड्ढाइज्जायवित्थरा हत्या | दो चेव सुत्तिया उ उन्निय तइश्रो मुयव्वो । अर्थात् -- अपने शरीर के प्रमाण लम्बी और श्रदाई हाथ चौड़ी दो सूत की ओर एक ऊन की एवं तीन चादर रखना—कहा गया है। इसका प्रयोजन तणगहणानलसेवा निवारणा, धम्म सुक्कज्झाणहा । दिहं कप्पग्गहणं गिलाण मरणट्टया चैव || अर्थात् - तृण गृहण एवं अनल सेवन से निवारण करने के लिये व धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान को ध्याने के लिये तथा ग्लान एवं सरणार्थ के लिये तीर्थंकरों ने वस्त्रग्रहण फरमाया है । (११) रजोहरण -- जीवरक्षार्थ एवं प्रमार्जनार्थ बत्तीसंगुलदीहं चउवीसंगुलाई दण्डो से अट्टागुला दसा श्री एगतंर ही महियं वा ॥ अर्थात् -- बत्तीस अंगुल के रजोहरण में चौवीस अंगुल प्रमाण दण्डी और आठ अंगुल की दसियां ( फलियाँ) होनी चाहिये । कदाचित् दण्डी लम्बी हो तो दसियां कम और दसियां लम्बी हो तो दण्डी कम, परन्तु रजोहरण बत्तीस अंगुल का होना चाहिये । प्रयोजन उन्न उट्टियं वा विकंचलं पाय पुच्छणं तिपरीयल्लमणिस्सिट्टं रजहरणं धारए इक्कं । 1 अर्थात् —ऊन का, व ऊंट के बालों का व कम्बल इन तीनों में से किसी एक तरह के रजोहरण को धारण कर सकते हैं। किसी स्थान पर पाँच प्रकार के रजोहरण लिखे हैं जिसमें अम्बाड़ी व मूंज का भी रजोहरण रख सकते हैं । आयाणे निक्खेवे ठाण निसीयण तुयट्ट संकोए पुव्र्वपमजणट्टा लिंगठ्ठा चेव रयहरणे || अर्थात् वस्तुओं को ग्रहण करते हुए, रखते हुए, खड़े होते हुए, बैठ हुए, सोते हुए, संकुचित होते हुए पूर्व प्रमार्जनार्थ व जैन धर्म का चिन्ह स्वरूप रजोहरण का कथन किया गया है । अन्यत्र इसको धर्म ध्वज भी कहा गया है । १३३० Jain Education International For Private & Personal Use Only जैन श्रमणों के धर्मोपकरण www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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