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________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन । [ ओसवाल संवत् ८८०-९२० पात्र के प्रभाव से आचार्य अपने साथ ले गये और शेष दो पूर्व का ज्ञान रहा है इसको लेने में भी एक देववाचक के अलावा कोई दीखता नहीं है तब देववाचक का भी यह हाल है तो मैं क्या कर सकता हूँ। इस हालत में आपके हस्तदीक्षित एक मंगलकुम्भ नाम का बड़ा ही प्रभावशाली मुनि था उनको श्राप एक पूर्व मूल ज्ञान पढ़ा चुके थे पुनः उन मंगलकुम्भ को उसका अर्थ, पढ़ाना प्रारम्भ किया तो देववाचक की आत्मा में ज्ञान की विशेष जिज्ञासा पैदा हुई अतः देववाचक को देडपूर्व सार्थ और श्राधापूर्व मूल एवं दो पूर्व का अध्ययन करवाया । बाद सूरिजी महाराज बिहार करते हुए भरोंच नगर में पधारे तो आपके उपदेश से वहां के श्रीसंघ ने वहां पर एक श्रमण सभा की जिसमें बहुत दूर दूर से श्रमण संघ तथा श्राद्ध वर्ग भरोंच नगर में एकत्रित हुए पाये ठीक समय पर सभा हुई प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने आये हुए चतुर्विध श्रीसंघ को शासन हित धर्मप्रचार एवं ज्ञान वृद्धि के लिये खूब ही श्रोजस्वी वाणी से उपदेश दिया और पूर्वाचार्यों का इतिहास सुनाकर उपस्थित जनता पर अच्छा प्रभाव डाला । तदनन्तर चतुर्विध श्रीसंघ की समक्ष मुनि मंगलकुम्मादि ११ मुनियों को उपाध्याय पद, मुनिदेववाचकादि तीन मुनियों को गणिपद के साथ क्षमाश्रमण पद, मुनि देवसुन्दरादि १५ मुनियों को पण्डितपद मुनि श्रानंदकलसादी १५ मुनियों को गणि एवं गणविच्छेद क पद मुनिसुमतितिलकादि १५ मुनियों को वाचनाचार्य पद से विभूषित कर उनकी योग्यता की कदर कर उत्साह को विशेष बढ़ाया इत्यादि इस सभा से जैन धर्म की उन्नति श्रमण संघ में जागृति और स्वधर्म की रक्षा एवं प्रचार कार्य में अच्छी सफलता मिली तत्पश्चात् भरोंच श्रीसंघ ने सम्मानपूर्वक श्रीसंघ को विसर्जित किया और सूरिजी के आदेशानुसार पदवीधरों ने भी प्रत्येक प्रान्तों की और विहार कर दिया और भरोंच संघ की श्राग्रह पूर्ण विनंती से प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने भरोंच नगर में चातुर्मास करने का निश्चय क लिया। जब सूरिजी ने भरोंच नगर में चतुर्भास किया तो अन्य साधुओं को आस पास के ग्रामनगरों में चतुर्मास की आज्ञादेदी अतः उस प्रान्त में सर्वत्र जैनधर्म का बिजय डंका बजने लग गयो। सूरिजी के विराजने से केवल एक भरोंचनगर की जैन जनता को ही लाभ नहीं हुआ पर जैनेतर लोगों को भी बड़ा भारी लाभ मिला श्रापश्री के मुखारविन्द से तात्विक दार्शनिक अध्यात्म योग समाधि वगैरह अनेक विषयों पर हमेशा व्याख्यान होता था कि जिसको श्रवण कर वहां के राजा एवं प्रजा अपना अहोभाग्य समझते थे और जैनधर्म की मुक्तकण्ठ से भूरि भूरि प्रशंसा करते थे जिस समय आप भरोंच में विराजते थे उस समय वहाँ बोद्धों के भी कई भिक्षु ठहरे हुए थे पर सूरिजी के सूर्य सदृश तप तेज के सामने वे चूं तक भी नहीं करते थे इतना ही क्यों पर एक विद्वान बौद्ध साधु ने सूरिजी के पास जैन दीक्षा भी स्वीकार करली थी जिससे बौद्धों में ठीक हलचल मच गई थी। सूरिजी ने जैनधर्म का प्रचार करते हुए भरोंच से बिहार कर श्रावंति प्रदेश में पदार्पण किया तो वहाँ की जनता के हर्ष का पार नहीं रहा उज्जैन माण्डवगढ़, मध्यमिका,महेंद्रपुर, खीलचीपुर, दशपुर होते हुए मेद पाट में पधारे वहां पर भी चित्रकोट नगरी अघाट देवपट्टनादि नगरों में धूमते हुए आप मरूधर में पधारे और अनुक्रमे उपकेशपुर पधार रहे थे उस समय मरूधर बासियों के उत्साह का पार नहीं था उपकेशपुर के श्रीसंघ ने सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया सुरिजी ने भगवान महावीर एवं प्राचार्य रत्नप्रभसूरि की यात्रा कर अपना अहो भाग्य समझा देवी सच्चायिका परोक्षपने आपकी सेवा में हाजर हो वन्दन किया करती थी श्रीसंघ की आग्रह भरी विनती से वह चतुर्मास सूरिजी ने उपकेशपुर में कर दिया जिससे जनता को बड़ा भारी लाभ मिला और धा Jain Edul Oternational For Private & Personal of आचार्य श्री का उपकेशपर में वतर्मास org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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