________________
प्राचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १५२८-१५७४
कोरंटगच्छ के पट्ट क्रम में ४५ वें पट्ट पर प्राचार्य नन्नप्रभसूरि एक महान् प्रतिभाशाली प्राचार्य थे आपकी कठोर तपश्चर्या से कई विद्या एवं लब्धियों आपको स्वयं वरदाई थी। आपकी व्याख्यानशैली तो इतनी आकर्षित थी कि मनुष्य तो क्या पर कभी कीभी देव देवियां भी आपकी अमृतमय व्याख्या देशना सुनने को ललायित रहते थे। एक समय आचार्यश्री विहार करने जा रहे थे कि जंगल में आपको कई घुड़ सवार तथा अनेक सरदार मिले
क्षत्रियों ने सूरिजी महाराज को नमस्कार किया। सूरिजी ने उच्च स्वर से धर्म लाभ दिया। क्षत्रियों ने-महात्माजी केवल धर्म लाभ से क्या होने वाला है कुछ चमत्कार हो तो बतलाओ । सूरिजी-आप लोग क्या चमत्कार देखना चाहते हैं ? क्षत्रिय-महात्माजी । हम निर्भय स्थान चाहते हैं ?
सूरिजी-आप अकृत्य कार्यों को छोड़ कर जैन धर्म की शरण प्रहण करलें आप इस लोक में क्यों भवोभव में निर्भय एवं सुखी बन जाओगे ?
क्षत्रिय-महात्माजी! आपके सामने हम सत्य बात कहते हैं कि हम लूट, खसोट कर, धाड़ा डालने का धंधा करते हैं यद्यपि हम इस धंधे को अच्छा नहीं समझते हैं तथापि हमारी आजीविका का एक मात्र यही एक साधन है।
सूरिजी-महानुभावों ! इस धंधे से इस भव में तो आप त्रसित हो भय के मारे इधर-उधर भटक रहे हैं तब परभव में तो निश्चय ही दुःख सहन करना पड़ेगा। यदि आप इस भव में और परभव में सुखी होना चाहते हैं तो जैन धर्म की शरण लें।
क्षत्री-महात्माजी ! हम जैन धर्म स्वीकार कर भी लें तो क्या आप हमारी सहायता कर सकेंगे।
सूरिजी-धर्म के प्रभाव में मैं ही क्यों पर महाजन संघ मी आपकी सहायता कर श्रापको सर्व प्रकार से सुखी बना देगा।
क्षत्री-ठीक है महात्माजी ! आपके कहने के अनुसार हम जैन धर्म की शरण लेने को तय्यार हैं तो सूरिजी ने उस जंगल में ही मुख्य पुरुष धूहड़ आदि जितने सरदार उस समय उपस्थित थे उन सब को वास क्षेप और मंत्रों से शुद्ध कर जैन धर्म के देवगुरु धर्म का संक्षिप्त से स्वरूप को समझा कर जैन बना लिये और उस दिन से ही उनको सात दुयसनों का त्याग करवा दिया और उन सरदारों ने भी बड़ी खुशी के साथ सूरिजी के वचनों को शिरोधार्य कर लिया । राव धुवड़ सूरिजी को अपने ग्राम सुसाणी में ले गया और वहां अपने कार्य में शामिल रहने वाले आस पास के सब सरदारों को बुलवा कर सूरिजी की सेवा में उपस्थित किये और सूरिजी ने उन सबों को उपदेश देकर जैन वना लिये इस बात की खबर इधर तो पद्मावती और उधर चन्द्रावती नगर में हुई बस उसी समय सैकड़ो की संख्या में भक्त लोग सूरिजी के दर्शनार्थ आये और उन्होंने सरिजी की भरिभरि प्रशंसा की। इस पर सरिजो ने कहा श्रावको! केवल प्रशंसा से ही काम नहीं चलता है पर जैसे हम लोग उपदेश देकर अजैनों को जैन मनाते हैं आप लोगों को भी उनके साथ सामाजिक म्यवहार कर उनका उत्साह बढ़ाना चाहिये । बस, फिर तो कहना ही क्या था उस समय जैनाचार्यो का उतना ही प्रभाव संघ पर था कि इशारा करते ही उन्होंने सूरिजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर उन नूतन जैनों को सब तरह से सहायता पहुँचा कर अपने भाई बना लिये । वे ही लोग आगे चल कर धाड़ावालों के नाम से ओलखाने लगे बाद धाड़ा का धाड़ीवाल शब्द बनगया।।
___ इसी प्रकार एक समय धुवड़ ने पाकर प्राचार्यश्री से अर्ज की कि हे प्रभो! आज माघ कृष्णा त्रयोदशी है बहुत से लोग रातड़िया भैरूं के स्थान पर एकत्र होकर बहुत से भैसों और बकरों को मार कर भैरूं का धाड़ीवाल जाति की उत्पति
१४६३ For Private & Personal Use Only
Jain Education international
www.jainelibrary.org