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________________ वि० सं० १०३३-१०७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पर्यन्त मौन वरिपरता सकी । शीघ्र ही देवी के मन्दिर के पास स्थित जन समुदाय के सन्मुख जाकर कहा-महानुभाग!आसनने में तो उच्च खान दान एवं कुलीन घराने के मालूम होते हैं। मुख पर क्षत्रियोचित स्वाभाविक जन रक्षक प्रतिभा गुण की झलक झलक रही है, फिर भी न मालूम आप लोग ऐसे जघन्य कुत्सित एवं हेय कार्य में प्रवृत्त क्यों हो रहे हैं ? मैं यह बात अच्छी तरह से समझता हूँ कि इसमें आप लोगों का किञ्चिन्मात्र भी दोष नहीं है। यह तो किसी आमिष भक्षी नरपिशाच की कुसंगत एवं मिथ्या उपदेश के कुसंस्कारों का ही परिणाम है । उन्हीं की जाल में फंस कर ही आप लोगों ने ऐसे अनुपादेय कार्य को कर्तव्यरूप समझा है। इसको धर्म एवं सौख्य का कारण समझने वाले केवल आप ही नहीं पर बहुत से क्षत्रिय हैं जो मांस भक्षियों की कुसंगति से अपना अधःपतन करते ही जा रहे हैं। क्षत्रिय वीरों का परमधर्म तो दुःखी जीवों के रक्षक बन कर अपने जातीय कर्तव्य को अदा करने रूप था पर मिथ्या उपदेशकों के वाग्जाल रूप औषदेशिक प्रपञ्च के भ्रम में फंसे हुए उन लोगों ने अपने परम पवित्र कर्तव्य व परम्परागत जातीय व्यवहार की स्मृति विस्मृति कर रक्षक रूप पवित्र एवं आदरणीय धर्म को छोड़ दिया। आज तो वे रक्षक होने के बजाय निरपराध मूक पशुओं को यमवत निष्ठर हृदय से आहत कर भक्षक बन गये हैं। इसी में अपने शौर्य, पराक्रम, कर्तव्य एवं धर्म की इति श्री समझनी है। इतना सब कुछ होते हुए भी अहिंसा भगवती के उपासक आचार्यों के सदुपदेश श्रवण से व उनकी आलोकिक चमत्कार पूर्ण शक्तियों की अलौकिकता से बहुत से क्षत्रियों ने, अपने पूर्वजों का पवित्र, वीरत्व वर्धक धर्मभार्ग प्रवर्तक इतिहास श्रवण कर इस क्रूर कर्म का त्याग कर दिया है उन्होंने उन महापुरुषों की सत्संग से अपने जीवन को अहिंसा धर्म से ओतप्रोत बना लिया है। अब तो केवल इस प्रकार लुक छिप कर जंगलों में अपनी पापवृत्ति का पोषण करने वाले थोड़े बहुत लोग ही रह गये हैं । इस समय आप स्वयं गम्भीरता पूर्वक विचार कर इस निर्णय पर पहुँच सकते हैं कि यदि यह कार्य शास्त्र विहित व जनकल्याणार्थ ही होता तो इस प्रकार छिप कर क्यों किया जाता ? अच्छा कार्य तो पब्लिक में सर्व समक्ष किया जाता है, इत्यादि। सूरिजी के इस परमार्थिक एवं निस्पृह उपदेश को श्रवण कर बहुत से लोग लज्जाशील बनगये । पर इस कार्य के करने में जो अग्रेश्वर या प्रमुख व्यक्ति थे वे बीच ही बोल उठे-महात्मन् ! आपको किसने आमन्त्रित किया कि आए आकर इस प्रकार हमें उपदेश देने लगे। यह तो हमारी वंश परम्परा से चला आया आदरणीय, स्तुत्य, हित, सुख एवं कल्याण का कारण है । शास्त्र या वेद विहित होने से सब प्रकार से करणीय है। बलिदान से देवी प्रसन्न होगी व बलि दिये जाने वाले पशु को भी स्वर्ग की प्राप्ति होगी। इससे उभय पक्ष में श्रेय एवं कल्याण का ही कारण होगा। आप इस बात को अच्छी तरह से नहीं समझते हैं अतः आप यहाँ से पधार जाइये । हमारे परम्पारागत कार्य को बीच में आपको बकवाद करने की आवश्यकता नहीं। सूरिजी-देवानुप्रिय ! यदि इन मूक प्राणियों को आप स्वर्ग में भेजकर देवी को प्रसन्न करना चाहते हो तो आप खयं या आपके कौटम्बिक लोग देवी को प्रसन्न करने के साथ स्वर्ग के सुख का अनुभव क्यों नहीं करते। . इस प्रकार सूरिजी ने अकाट्य प्रमाणों, प्रबल युक्तियों एवं उदाहरणों से इस प्रकार समझाया कि उन लोगों में चौहान वीर महाराव आदि को उन पशुओं पर दया भाव पैदा होगया ! सूरिजी के उपदेशाजुसार उन्होंने हुक्म दे दिया कि इन सब पशुओं को शीघ्र ही बन्धन मुक्त अमर कर दिये जाय । बस, फिर तो देर ही क्या थी ? अनुचरों ने सब पशुओं को छोड़ दिये । वे मूक प्राणी भी अपनी अन्तरात्मा से सूरिजी को आशीर्वाद देते हुए स्वनिर्दिष्ट स्थान की ओर भाग छूटे। मानो उन्होंने नूतन जन्म को ही प्राप्त किया हो इस तरह अत्यन्त उत्सुकता के साथ अपने बाल बच्चों से जा मिले । १४१६ गरुड़ जाति की उत्पति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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