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प्राचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १४३३-१४७४
योगी के साथ स्वयं सपनी सूरिजी के पदाम्बुजों में भव विनाशिनी दीक्षा परम वैराग्य पूर्वक ग्रहण करली । आचार्यश्री ने भी लाडुक को "सोम-सुन्दर" अमिधान से अलंकृत किया।
__ मुनिश्री सोम सुन्दर गुरु चरणों की भक्ति में अनुरक्त रह तत्कालीन एकादशाङ्गादि जितने भागम थेसबका सम्यक् रीत्या अभ्यास कर लिया। इसके सिवाय अध्यात्मवाद, नयवाद, परमाणुवाद, ज्योतिष, मन्त्र यन्त्र विद्याओं में भी अनन्यता प्राप्त करली । अन्य दर्शनों का अभ्यास करने में तो किसी भी तरह की कभी नहीं रक्खी, क्योंकि उस जमाने में इसकी परम आवश्यकता थीं। राजा महाराजाओं की राजसभा में उस जमाने में खूब शास्त्रार्थ हुआ करते थे और वादियों के शास्त्रों से ही वादियों को पराजित करने में बड़ा गौरव समझा जाता था और यह तब ही हो सकता था जब उनके शामों का अभ्यास किया गया हो । इस तरह अपने दर्शन के साङ्गोपाङ्ग अध्ययन के साथ ही साथ मुनि सोभसुन्दर ने अन्य दर्शनों में भी अनन्यता
रली। कुशाग्र बद्धि मनि सोमसन्दर ने गरुदेव कृपा से किसी भी तरह की कभी नहीं रहने दी। उन्होंने तो स्थविरों की वैयावश्च कर मुनि जीवन योग्य सब गुणों को प्राप्त करने में किसी भी तरह की कमी नहीं रहने दी।
इधर मुनि सोमसुन्दर (लाडुक) के साथ जिस योगी महात्मा ने दीक्षाली थी, उसका नाम दीक्षानंतर मुनि धर्मरन रख दिया था। मुनि धर्मरन ने भी जैनधर्म के सम्पूर्ण तत्वों, सिद्धान्तों एवं आगमों का अवगाहनमन्थन कर जैन दर्शन में गजब की दक्षता प्राप्त करली । योग बल की चमत्कार शाक्ति एवं तात्विक बुद्धि की श्लाघनीय पटुता के कारण मुनि धर्मरत्न ने स्थान २ पर जिनधर्म का अभ्युदय कर जैन धर्म की प्रभावना की । कालान्तर में अलग विचरने योग्य सर्व गुण सम्पन्न हो जाने पर आचार्यश्री ने पाठक पद से विभूषित कर मुनि धर्मरत्न को १०० मुनियों के साथ धर्म प्रचारार्थ अन्य प्रान्तों में विहार करने की आज्ञा प्रदान की। मुनि धर्मरत्न ने भी गुर्वादेश को शिरोधार्य कर अपनी चमत्कारिक शक्तियों से जैन धर्म की आशातीत प्रभावना की।
प्राचार्यश्री देवगुपसूरि ने मुनि सोमसुन्दर को सकल शास्त्र निष्णात, विविध विद्या पारङ्गत गच्छभारवाहक सर्वगुण सम्पन्न समझ परम्परागत सूरि मन्त्राराधन करवाकर मन्त्र, यन्त्र, चमत्कारिक शाक्तियां एवं आम्नायों को प्रदान की । पश्चात् अपनी अन्तिम अवस्था में अपना मृत्यु समय जान कर जाबलीपुर के आदित्यनाग गौत्रीय पारख शाखा के धर्म प्रेमी, श्रावकव्रत नियम निष्ठ श्रावक श्री नेमाशाह द्वारा किये गये महा-महोत्सव के साथ आपको आचार्य पद से विभूषित कर श्रापका नाम "सिद्धसूरि" के रूप में परिवर्तित कर दिया । इधर धर्मरत्न मुनि की बढ़ती हुई योग्यता का आदर कर आचार्यश्री ने उनको उपाध्याय पद प्रतिष्ठित किया। सच है योग्य पुरुषों से योग्य व्यक्तियों का योग्य सत्कार होता ही है।
स्वनाम धन्य आचार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज महान् चमत्कारी विद्वान् एवं धर्म प्रचारक थे । स्वपर मत के सकल शास्त्रों के पूर्ण मर्मज्ञ होने से आपके गम्भीर उपदेश प्रायः राजाओं की राज सभा में बड़ी ही निडरता के साथ होते थे । यही कारण था कि अनेक सेठ, साहूकार, राजा, महाराजा और मन्त्रियों पर आपका गहरा प्रभाव था।
ओसवालों में गरुड़ जाति-प्राचार्यश्री सिद्धसूरिजी अपने शिष्य मण्डल के साथ परिभ्रमन करते हुए मरुधर प्रान्तीय सत्यपुर शहर की ओर पधार रहे थे कि मार्ग में एक अरण्य के भयानक स्थान में एक देवी के मन्दिर के पास बहुत से मनुष्यों को एकत्रित होते हुए देखा । जन समुदाय के समीप ही बहुत से दीन, मूक पशु दीन वदन से क्रंदन करते हुए व बहुत से वनचर जीवों के रक्त रंजित कलेवर भूमि पर बिखरे हुए दृष्टिगोचर हए । आचार्यश्री सिद्धसूरि ने मकजीवों का जंगल में ऐसा करुणाजनक दृश्य दे निरपराध मूक पशुओं के वात्सल्य भाव के कारण आपका हृदय दया से परिप्लावित होगया । आप से ज्यादा समय लाडुक और योगी की दीचा
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