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________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० संदेह नहीं पर वे निस्पही है उनको इन संसारी बातें से कुच्छ भी प्रयोजन नहीं है परन्तु सोमाशाह को गुरुवर्य्य कक्कसूरिजी महागज का पक्का इष्ट था उसने काराग्रह में रहा हुआ आचार्य कक्कसूरि के गुणों का एक अष्टक सरस कवितामय बनाया ज्यों ज्यों एक एक काव्य बनता गया और एक एक शांकल तुटती गई अतः सात शांकलों सात काव्यों बनाने से तुट गई और आठवा काव्य बनाते ही कोठरी का ताला तुट पड़ा और द्वार के कपट स्वयं खुल गये सोमाशाह राजा के सामने अाकर खड़ा हुआ जिसको देख राजा और राज सभा के लोग आश्चर्य में मुग्ध बनगये और सोमाशाह के इष्ट की भूरि भूरि प्रशंसा कर सोमाशाह को लाख रुपयों का इनाम दया ! सोमाशाह राजा के पास से चलकर अपने घर पर नहीं पाया पर सीधा ही भरोंच नगर की ओर रवाना होगया क्योंकि उसने पहिले ही प्रतिज्ञा करली थी कि मैं गुरु कृपा से इस उपसर्ग से बच जाउ तो पहिले गुरुदेव के चरणों का स्पर्श करके ही घर पर जाउगा। हां दुःख में प्रतिज्ञा करने वाले बहुत होते है पर दुःख जाने के बाद प्रतिज्ञा पालन करने वाले सोमाशाह जैसे विरले ही होते है। सोमाशाह अपनी प्रतिज्ञा को पालन करने के लिये चलकर भरोंचनगर आया जो मारोटकोट से बहुत दूर था परन्तु उस संकट को देखते वह कुच्छ भी दूर नहीं था पाठकों ! आप आचार्य रत्नप्रभसूरि के जीवन में पढ़ आये हैं कि आद्यचार्य रत्नप्रभसूरि ने दीक्षा ली थी उस समय आप एक पन्ना की मूर्ति साथ में लेकर ही दीक्षा ली थी और वह मूत्तिं क्रमशः श्रापके पटधरों के पास रहती आई है और जितने आचार्य उपकेशगच्छ में हुए है वे सब उस पार्श्वनाथमूर्ति की भाव पूजा अर्थात् उपासना करते आये हैं वह मूर्ति श्राज आचार्य कक्कसरि के पास है जिस समय आचार्य श्री मूर्ति की उपासना करने को विराजते थे उस समय देवी सच्चायिका भी दर्शन करने को आया करती थी। भाग्य विसात् उधर तो सोमाशाह सूरिजी के दर्शन करने को आता है और इधर भिक्षा का समय होने से साधु नगर में भिक्षार्थ जाते हैं देवी सच्चायिका एकान्त में सूरिजी के पास बैठी है और सूरिजी मूर्ति की उपासना कर रहा है सोमाशाह ने उपाश्रय साधुओं से शुन्य देखा तथा एक और रूप योवन लावण्य संयुक्त युवा स्त्री के पास "तत्पट्टे ककसरि द्वादश वर्षयावत् पष्टतपं आचाम्ब सहितं कृतवान् तस्यस्मरण स्तेतिण मरोटकोटे सोमक श्रेष्टिस्य शृंखला त्रुटिता तेन चिंतितं यस्य गुरोनाम स्मरणेन बन्धन रहितो जातः एकवारं तस्य पादौ वन्दामि। स भरूकच्छे आगतः अटण वेलायां सर्वे मुनीश्वरा अटनार्थ गतास्ति। सच्चाका गुरु अग्रेस्थितास्ते द्वारो दतोस्ति तेने विकल्पं कृतं । सच्चायिका शिक्षा दत्ता मुखे रूधरो वमति । मुनीश्वरा आगता वृद्धगणेशेन ज्ञातं भगवन् द्वारे सोमक श्रेष्टि पतितोस्ति आचार्य ज्ञातं अयं सचिका कृतं, सच्चिका आहुता । कथितं त्वया किं कृतं ? भगवान मया योग्यकृतं रे पापिष्ट यस्य गुरू नाम ग्रहणे वन्धनोनि शृंखलानि त्रुटितानि संति स अनाचारे रतो न भविष्यति परं एतेन आत्मकृत लब्धं । गुरूणा प्रक्तो कोपं त्यज शान्ति कुरु ? तया कथितं यदि असौ शान्ति भविष्यति तदा अस्माकं आगमन न भविष्यति प्रत्यक्षं । गुरुणाचिंतितं भवितव्यं भवत्येव स सज्जी कृतः सच्चायका वचनात् द्वयानाम भण्डारे कृतः श्री रत्नप्रभसरि अपर श्री यक्षदेवसूरि एते सप्रभावा एतदने हासि "उपकेगच्छ पट्टावली" सोमाशाह के गुरु अष्टक का प्रभाव ] Jain Education Internatio१७९ ८६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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