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________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सेठजी-ठीक है महाराज ! इसके लिये मैं विचार कर आपको जवाब दूंगा। ब्राह्मण-निराश होकर वहाँ से चले गये सेठजी-समय पा कर सूरिजी के पास गये और नमस्कार कर पूछा कि महात्माजी ! आत्मकल्याण के लिये धर्म दुनियां में एक है या अनेक-? सूरिजी-महानुभाव ! आत्म कल्याण के लिये धर्म एक ही होता है अनेक नही । हाँ एक धर्म की आराधना के कारण अनेक हुआ करते हैं। ___ सेठजी-फिर आज संसार में अनेक धर्म, दृष्टि गोचर हो रहे हैं जिसमें भी प्रत्येक धर्म वाले अपने धर्म को सच्चा और दूसरे धर्म को झूठा वतलाते हैं फिर हम किस धर्म पर विश्वास रख कर अपना कल्याण करें? सूरिजी-अनेक धर्म एक धर्म की शाखारूप है और अपने अपने स्वार्थ के लिये शुरु से तो थोड़ा थोड़ा भेद डाल कर अलग अखाड़े जमाये पर बाद में कई लोगों ने बिलकुल उल्टा रस्ता पकड लिया और धर्म के नामपर अधर्म और पाखण्ड चलादिये जैसे वाममार्गियों का एवं यज्ञ हवनादि । खैर दूसरी तरह से कहा जाय तो इसमें आप जैसों की कसोटी भी है कहा है कि "बुद्धि फलं तत्व विचारणंच" आप स्वयं विचार कर सकते है कि अनेक धर्मों में से कौनसा धर्म कल्याण करने में समर्थ है खैर जैन धर्म के विषय में आप जानते ही होंगे नही तो मैं संक्षिप्त में परिचय करवा देता हूँ ! जैन साधुओं में सब से विशेषता तो त्याग वैराग्य की है वे कनक और कामिनी से बिलकुल मुक्त है कंकर पत्थर उनके काम आ सकते है पर रुपया पैसा उनके काम में नही आते हैं छमास की लड़की को भी वे नहीं छूते हैं किसी भी जीवकों वे कष्ट नहीं पहुंचाते हैं अर्थात् आप स्वयं कठिनाइयों को सहन जो करलेते हैं पर दूसरे चराचर जीवों को कष्ट नहीं पहुँचाते हैं अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और अकिंचन धर्म को वे मन वचन काया से करण करावण और अनुमोदन एवं नौकोटी परिविशुद्ध पालन करते हैं तप तपने में वे वडे ही शुरवीर होते हैं परोपकार के लिये तो वे अपना जीवन अर्पण कर चुके हैं। संसार की उपाधि से वे सर्वथा मुक्त है अपने कर्तव्य पालन में वे किसी प्रकार का मान अपमान एवं सुख दुःख का खयाल नहीं करते हैं किसी पदार्थ का संचय एवं प्रतिबन्ध नहीं रखते हैं उनके पास राजा रंक कोई भी आवे धर्मोपदेश देने में थोड़ा भी भेद भाव नहीं रखते हैं इत्यादि यह तो उनका आचार व्यवहार है । तत्वज्ञान में उनका स्याद्वाद नयबाद प्रमाणवाद कर्मवाद आत्माबाद क्रियावाद सृष्टिवाद परमाणुवाद योग भासन समाधि वगैरह सर्वोत्कृष्ट है कि दूसरे कहीं पर वैसे नहीं मिल सकेंगे अतः आत्म कल्याण के लिये जैनधर्म की आराधना करना ही सर्व श्रेष्ठ है । महानुभाव ! जैनधर्म किसी साधारण व्यक्ति का चलाया हुआ धर्म नहीं है पर यह धर्म अनादि अनन्त है । इस धर्म के प्रवारक बड़े बड़े तीर्थकर हुए हैं एक समय जैनधर्म एक विश्व धर्म था और आज भी यह सर्व प्रान्तों में प्रसारित है हाँ जिस प्रान्त में जैन मुनियों का बिहार एवं उपदेश नहीं हुआ है वहाँ स्वार्थी लोगों ने अपने स्वल्प स्वार्थ के लिये विचारे भद्रिक लोगों को धर्म के नाम उल्टे रास्ते लगा दिये हैं भाप स्वयं सोच सकते हैं कि एक यज्ञ करने में ब्राह्मणों का थोड़ा सा स्वार्थ है पर लाखों प्राणियों की निर्दयता पूर्वक बलि चढ़ाकर हजारों लाखों जीवों के कर्म बन्धका कारण कर मालते हैं इत्यादिसूरिजी ने सेठ को अच्छी तरह समझाया । सेठजी-महात्माजी ! आपका कहना बहुत ठीक एवं अपक्षपात पूर्ण भी है पर मेरे वंश परम्परा से सेठ सालग और लोहा बनिया का उ० ] ६.३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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