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________________ प्राचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १४११-१४३३ सम्बन्धी वार्तालय एवं परामर्श समयानुकूल किया करते थे। एक दिन देवी ने आचार्य श्री से प्रार्थना कीपूज्यवर ! आपने अपने परमोपकारी शरीर से जैनधर्म एवं गच्छ की बड़ी कीमती सेवा की है। अब आपकी वृद्धावस्था है अतः आप अपने पट्ट पर योग्य मुनि को सूरि पद प्रदान कर परम निवृत्ति पूर्वक आत्म साधन करें । अब यहीं पर स्थिरवास कर हमको कृतार्थ करें जिससे हमें दर्शन का लाभ बराबर मिलता रहे। इस पर सूरिजी ने कहा-देवीजी ! श्रापका कहना सौलह आना सत्य है। मेरी इच्छा उपा० विनयरुची को पद प्रतिष्ठित कर सर्वथा निवृत्ति मय मार्ग का अनुसरण करने की है। देवी-उपा० विनयरुची आपके पट्टधर होने के सर्वथा योग्य है। इस प्रकार कह कर सञ्चायिका ने आचार्य श्री को वन्दन किया । सूरिजी ने भी उन्हें धर्म लाभ दिया। देवी भी धर्मलाभ रूप शुभाशोर्वाद प्राप्त कर स्वस्थान चली गई। आचार्यश्री की वृद्धावस्था के कारण व्याख्यान कभी २ उपा० विनयरुची दिया करते थे। एक समय संघ के अग्रेश्वरों ने मिलकर प्रार्थना की पूज्य गुरुदेव ! आपकी वृद्धावस्था है अतः योग्य मुनि को सूरि पद प्रदान कर आपश्री गच्छ के भार से सर्वथा चिन्ता मुक्त हो जावें । यहाँ के श्रीसंघ की इच्छा है कि उपा० विनयरुची को सूरि पद से विभूषित किया जावे फिर तो जैसा आपको योग्य एवं उचित ज्ञात हो कुछ भी हो सूरि पद महोत्सव का लाभ तो यहां के श्रीसंघ को ही मिलना चाहिये । सूरिजी को यह बात पहिले देवी ने कही थी और आज श्रीसंघ की भी अग्रह पूर्ण प्रार्थना हुई अतः समयज्ञ सूरिजी ने यह प्रार्थना अविलम्ब स्वीकार करली । डिडू गौत्रीय शा० तेजसी ने सूरि पद के महोत्सव के लिये चतुर्विध श्रीसंघ से आदेश मांगा और श्री संघ ने भी उन्हें सहर्ष आज्ञा प्रदान की। वि० सं० १०३३ के आषाढ़ शुक्ला प्रतिपदा के शुभ दिन डिडू गौत्रीय शा० तेजसी के किये हुए महा-महोत्सव के साथ भगवान महावीर के चैत्य में चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष उपाध्याय पद विभूषित उपा० विनयरुची को आचार्यश्री ने सूरि पद से विभूषित किया । और परम्परानुसार आपका नाम सिद्ध सूरि रख दिया इसके साथ ही साथ अन्य योग्य मुनियों को उनकी योग्यतानुसार उपाध्याय, पण्डित, वाचनाचार्य, महत्तर, प्रवर्तकादि पदवियाँ प्रदान की। इस सुअवसर पर बहुत से भक्त जन बाहर से आये थे वे स्वधर्मी बन्धु भी महोत्सव में सम्मिलित थे। शाह तेजसी ने सकल श्रीसंघ के नरनारियों को वढ़िया स्वर्णमुद्रिकादि की प्रभावना देकर नवलक्ष रुपये व्यय किये। इससे जैन शासन की अत्यन्त प्रभावना हुई व शाह तेजसी ने अक्षय पुण्योपार्जन किया। उपकेशगच्छाचार्यों का यह नियम था कि अपने पद पर किसी योग्य मुनि को सूरि पद कभी क्यों न दे देते पर चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति जो रत्नप्रभसूरि से चली आई थी-जिस दिन नूतनाचार्य के हस्तगत करते उसी दिन से वे पट्टकर गिने जाते। पूज्याचार्य देव के २२ वर्षों के शासन में मुमुक्षुत्रों को जैन दीक्षाएं १-नागपुर चोरडिया जाति के शाह माना ने सूरिजी के पास दीक्षाली २-मेदिनीपुर - आर्य सलखण ने , ३-पासोडी भुरंट रामा ने ४-दात्तिपुर संकासेठ हरखाने ५-हर्षपुर श्रेष्टि दुर्जन ने ६-विजासणी जांघडा फूसा ने ७---भवानीपुर दरड़ा दुर्गा ने ८-पाटण पोकरणा नाथा ने सूरीश्वरजी के शासन में दीक्षाएं १४०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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