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________________ वि० सं० ६०१-६३१ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बन कर व्यापार करने लग जाता था तथा मकान भी बनालेता था यही कारण है कि अन्योन्य स्थानों के जैन भाई चन्द्रावती में श्राकर वास एवं व्यापार करते थे । एक यह बात भी बहुत प्रसिद्ध है कि चन्द्रावती नगरी में ३६० अर्वपति जैन बसते थे और उनकी ओर से एक एक दिन स्वामि वात्सल्य भी हुआ करता था जिससे चन्द्रावती के जैनों को घरपर रसोई बनाने की जरूरत ही नहीं रहती थी। जैनों की इस प्रकार उमारता ने अन्य लोगों पर खूब ही प्रभाव डाला था और इस प्रकार सुविधा के कारण अन्य लोग बड़ी खुशी के साथ जैन धर्म स्वीकार कर स्व-पर आत्मा का कल्याण करने में भाग्यशाली बनते थे। यही कारण है कि एक समय भारत और भारत के बहार जैनों की संख्या चालीस करोड़ की कही जाति थी । कोई भी धर्म क्यों न हो पर उसमें उपदेश के साथ सहायता एवं सुविध मिलती हो वह जल्दी बढ़ जाता है अर्थात् उप धर्म का प्रचुरता से प्रचार हो सकता है। प्रस्तुत चंद्रावती नगरी में प्राग्वटवंशावतंस, श्रावकवत नियम निष्ठ, न्यायनीति निपुण शा. पशोवीर नाम के धन जन सम्पन्न ष्टिवर्य सकुटम्ब निवासकरते थे। आपकी राज्य नीति कुशलता से आश्च र्यान्वित हो चंद्रावती के अधीश राव श्रीसज्जनसेनजी ने आपको अपने राज्य में अमात्य पद से विभूषित किया था । षोडश कला से परिपूर्ण कलानिधि की शुभ्र ज्योत्स्ना के समान मंत्री यशोवीर की कार्य दक्षता एवौं उदारता की यशोगाथा भी सर्वत्र विस्तृत थी। आपकी कार्य शैली ने राजा और प्रजा सब को मंत्र मुग्ध सा बनालिया था । सर्वत्र शान्ति एवं आनंद की अपूर्व लहरें ही दृष्टि गोचर होती थी । श्रीयशोवीर की गृहदेवी का नाम रामा था । रामा भी सरल स्वभावी धर्म प्रेमी कर्तव्य निष्ठ श्राविका थी। इसने सात पुत्रियों और तीन पुत्रों को जन्म देकर अपना जीवन कृतार्थ कर लिया था। तीनों पुत्रों के नाम क्रमशः शा. मण्डन, खेता और खीवसी थे। मंत्री यशोवीर का घराना परम्परा से ही जैन धर्म का परमोपासक था । श्राचार्य श्री स्वयंप्रभसूरिने पद्मावती नगरी के राजा प्रजा को जैन धर्म में दीक्षित (संस्कारित) किये थे अतः श्राप पद्मावती प्राग्वट्टवशीय कहलाते थे। मंत्री यशोवीर बढ़ा ही समयज्ञ एवं नीतिज्ञ था । अतः उसने अपते ज्येष्ठ पुत्र मण्डन को तो राष्ट्रीय राजकीय नीति विद्या में परम निष्णात बनाया और खेता खेषसी के लिये लम्बा चौड़ाग्यापारिक क्षेत्र स्वतंत्र कर दिया। श्रीयशोवीर, इतने बड़े पद का अधिकारी होने पर भी धर्म कार्य में अत्यन्त ही श्रद्धा रखने वाला था । प्रभुपूजा और सामायिक वगैरह श्रावक के नियमों में अत्यन्त दृढ़ था। कभी भी बनते प्रयत्न अपने नियमों को भंग नहीं होने देता था । यदि राजकीय जटिल समस्याओं के कारण कभी युद्ध वगैरह में जाना पड़ता तो प्रमु पूजा और प्रतिक्रमणादि कार्यों को तो वह छोड़ताभी नहीं था। तथा सेठानी रामा बड़े कुटम्ब वाली थी पर उसने कौटुम्बिक सुखों में भी अपने नित्य नियमों को नहीं भूला । वह अटूट श्रद्धा एवं सावधानी पूर्वक अपना नित्य कर्म किया ही करती थी । पूर्व जमाने के व्यक्ति इस असार संसार में धर्म को हो सारचूत तात्विक वस्तु समझते थे। वे गार्हस्थ्य जीवन में रहते हुए भी संसार से प्रायः विरक्त से ही रहते थे। जैनाचार्यों का उपदेश भी वैराग्यवर्धक ही होता था अतः उनका बैराग्य; आचार्यश्री के व्याख्यान श्रवण से द्विगुणित हो माता था। मंत्रीवीर यशोवीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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