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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन [ ओसवाल सं० १००१.१०३१ मंत्री यशोवीर ने अपने पुत्रों के लिये क्रमशः राजकीय एवं व्यापारिक शिक्षा का प्रबन्ध कर रक्खा था अतः अपनी विद्यमानता में ही अपने ज्येष्ट पुत्र मंडन को अपपद (मंत्रीपद) पर और खेता खेवसी को पारिक क्षेत्रमें लगादिये । इस तरह अपने पद का उत्तर दायित्व अपने पुत्रों को सौंप कर यशोवीर भात्मकल्याण के मार्ग में संलग्न हो गया। मंत्री यशोवीर ने चंद्रावती नगरी के बाहिर विविध पादपलसानों से समन्वित, नाना प्रकार के पुष्पों की मन मोहक सौरभ से सौरभशील, नयनाभिराम एक उपवन लगवाया था । उक्त उपवन में भगवान् महावीर का अत्यन्त कमनीय, जिनालय बनवा प्राचार्यश्री ककसूरिजी म. के कर कमलों से प्रतिष्ठा कर. काई थी। उसी समय से आपने चतुर्थव्रत ( ब्रह्मचर्य व्रत ) ले लिया था। सांसारिक प्रवृत्तियों में रहते हुए भी जल कमल वत् निर्लेप हो साधु वृत्ति के अनुरूप ही शान्तिमय जीवन व्यतित करता था। बस उपवन के एकान्त निर्विघ्न स्थान में शान्तिपूर्वक अवशिष्ट आयुष्य को धर्माराधन में गा दिया। वास्तव में उस समय के जीव बहुत ही लघुकर्मी होते थे। सासारिक कार्यों में आत्म कल्याण के परम निवृत्ति मार्ग को नहीं भूलते थे। मंत्री मंडन की वय पचास वर्ष की हो चुकी थी। आपके इ. समय में सात पुत्र और दो पुत्रियां भी विद्यमान थीं । एक समय मण्डन अपने घर में सोश हुआ था कि पास ही के किसी घर में एक युवक की मृत्यु होजाने से उसकी वृद्धा माता और तरुण पत्नी का करुण दन उसके दानों में सुनाई पड़ा । इस उदन को सुन पहले तो उसे बहुत ही कर्ण कटु एवं सुख में खलल पहुँचाने वाला विधः भूतसा लगा पर जब उसने गहरे मननपूर्वक अपनी आत्मा की ओर देखा तो उसे निश्चय होगया कि संसार में जन्म लेने बालों को इसी तरह मृत्यु के मुख में जाना ही पड़ता है। जब उक्त युवक के मर जाने से इनके कुटुम्बियों को इतने दुख का अनुभव करना पड़ रहा है तो मरने वाले को तो मृत्यु के समय कैसा भीषण दुःख सहना पड़ता होगा ? अरे ये कौटुबिक लोग तो अपने स्वार्थ के लिये रो रहे हैं पर इस मृत ज व ने तो न मालूम कैसे निकाचित कर्म बांधे हैं और न जाने किस गति का अनुभव किया है । अच्छा है कि मेरे माता पिता सांसारिक, कौटुम्बिक मिथ्या मोह-प्रपञ्च से विरक्त हों एकान्त में धर्माराधन पूर्वक आत्म कल्याण-सम्पादन कर रहे हैं । वे इस जन्म मरण के अनादि सम्बन्धित दुःखों को मिटाने के लिये ही ऐसा करते होगें पर धर्म कृत्याराधन-विहीन मेरे जीवन की कथा हकीकत होगी ? अरे ! तो रात दिन राजकीय प्रपञ्चों में इलमा हश्रा उसी को सुलझाने में अपने कर्तव्य की इति श्री समझ रहा हूँ पर मृत्यु के पश्चात न मालूम किन २ यतनाओं का अनुभव करना होगा ? मेरी तो इसमें केवल उदरपूर्ति का स्वार्थ के सिवाय अन्य कोई भी स्वार्थ ( पात्म ) सिद्धि नहीं होने का है। अहो ! मेरे जैसा इस संसार में कौन मूर्ख शिरोमणि होगा कि एक तुच्छ, निस्सार पदार्थ के लिये अमूल्य, सुरदुर्लभ मानव देह को मिट्टी में मिला रहा हूँ। बस मण्डन ने शेष रात्रि आत्म विचारों में ही व्यतीत करदी । प्रातःकाल नियमानुसार उठकर नित्य क्रिया से निवृत्ति पा मन्दिर गया और सेवा, पूजाकर समीपस्थ उपाश्रय में विराजमान गुरु महाराज को वंदन कर उनके अभिमुख शान्त चिन्त, विचार मग्न हो बैठ गया। गुरु महाराज ने मण्डन को स्थिरता पूर्वक बैठा हुआ देख विचार किया कि जिस मण्डन को राजकीय कार्यों से मिनिट भर भी फुरसत नहीं मिलती, आज वही मन इस प्रकार स्थिरता पूर्वक क्यों मंत्री मण्डन का वैराग्यमय विचार १०२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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