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________________ वि० सं० ६०१-६३१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बैठा हुआ है ? इसके चेहरे पर भी उदासीनता की स्पष्ट रेखा फलक रही है, अतः इसका कोई न कोई गम्भीर कारण अवश्य ही होना चाहिये । चिन्तित मण्डन को चिन्तामन देख गुरु महाराज ने आज क्या ध्यान लगा रहे हो ? कहा:- मण्डन ! मण्डनः ---- गुरुदेव ! आप बड़े ही सुखी हैं । गुरु- हाँ, संगमी तो सदैव ही सुखी रहते हैं। वे इस लोक में ही नहीं किन्तु पर लोक में भी सदा सुखी रहते हैं। क्या तू भी सुखी होना चाहता है ? मण्डन- गुरुदेव ! सुखी होना कौन नहीं चाहता ? गुरु- तब तो निर्वृत्ति मार्ग के लिये सत्वर तत्पर होजाइये | मण्डन - भगवन् ! मैं तो तैयार ही बैठा हूँ । गुरु - क्या अपने राजा और माता पिता की अनुमति ले आया है ? मण्डन- राजा की अनुमति की तो आवश्यकता ही क्या है ? माता पिता तो स्वयंमेव श्रात्म कल्याण में संलग्न हैं, वे मुझे क्यों कर रोकेंगे ? गुरु- आचर्य करते हुए कहा मण्डन अनुमति की आवश्यकता तो रहती है । मण्डन- अच्छा - गुरुदेव मैं अनुमति ले आता हूँ । उक्त वचन कह मण्डन ने गुरु महाराज को सविधि वंदन किया और गुरु महाराज ने भी उसके बबले में परम कल्याणकारी धर्मलाभ-शुभाशीर्वाद दिया । मण्डन घर चला गया । आचार्य कक्कसूरिजी म स्थण्डिल पधार कर वापिस आये तो सकल साधुओं ने अपने आसन से उठकर आचार्यश्री का अभिनंदन किया । कई एकों ने आचार्यश्री के पादप्रभार्जन किये । क्रमशः सूरिजी भी इरियावी का पाठ करते हुए पट्ट पर विराजमान हुए तदन्तर अपने सकल शिष्य समुदाय को मंत्री मण्डन के दीक्षा की बात कही तो सब को आश्चयत्पन्न हुआ कि - यकायक राजा का मंत्री दीक्षा लेने को कैसे तैय्यार होगया ? सूरिजी ने कहा - श्रमण वर्ग इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? कर्म विचित्र प्रकार के होते हैं। क्या नृत्य करते हुए ऐलापुत्र को केवल ज्ञान नहीं हुआ ? माता मरुदेवी, और चक्रवर्तीभरत कुर्मा पुत्र पृथ्वीचंद्र गुणसागरादिकों को गृहस्थ वेष में केवल ज्ञान नहीं हुआ ? तो फिर मण्डन की दीक्षा की बात में आश्चर्य ही क्या ? ! संसार के पौद्गलिक सुखों में फंसे हुए मनुष्य की दीक्षा विषयक आत्म कल्याण भावना को श्रवण कर भ्रमण समुदाय में भी खुशी हो रहीथी । वास्तव में - " पर कल्याणे संतुष्टाः साधवः ' "" इधर मंत्री मण्डन अपने मातापिता के पास श्राकर दीक्षा की अनुमति मांगने लगा । पर माता पिताओं को भी अचानक दीक्षा का नाम श्रवण कर श्रचय व कौतूहल होने लगा। जब कि सारा ही सांसारिक भार, राजकीय समस्याएं कुटुम्ब पालन का कार्य मण्डन को सौंप दिया गया तो फिर वह यकायक इन पाशविक पाशों से मुक्त होकर दीक्षा के लिये किन कारणों से उद्यत हुआ ? यह गम्भीर समस्या सबको गहरे विचारों मैं गर्क करने वाली और असमंजस में डालने वाली हुई । कुछ ही क्षणों के पश्चात् मण्डन के मुख से ही मण्डन के वैराग्य का कारण व पौद्गलिक पदार्थों की क्षण भङ्गुरता के विषय को श्रवण किया तो माता पिताओं का वैराग्य भी द्विगुनित होगया । वे अपनी वृद्धावस्था में भी दीक्षा लेने को तैयार हो गये । जब १०३० Jain Education international For Private & Personal Use Only मंत्री मंडन और सूरीश्वरजी www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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