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________________ वि० सं० ८३७-७७८ ( भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास होजायगा । जिन विचार धाराओं को लक्ष्य में रख कर हमचैत्यवास का विच्छेद करना चाहते हैं वे भावनाएं तो एक और धरी रह जावेंगी किन्तु संघ में कलह एंव द्वेष के अंकुर, अंकुरित होने लग जयगे। भविष्य के परिणाम को जो ज्ञानी महाराज ही जानते हैं पर अभी ही इस का ऐसा कटुफल हमको सहन करना पड़ेगा कि हमें हमारे किये कृत्य का घोर पश्चात्ताप करना होगा। सूरीश्वरजीम० श्राप स्वयं विचारज्ञ, समयज्ञ,धर्मज्ञ, एवं भनीषी हैं। श्राप स्वयं विचार कर सकते हैं कि साधुओं के चैत्य में रहने से ही अनार्यो, मलेच्छो एव' धर्मान्ध विधर्मियों के भीषण अाक्रमणों से चैत्य की भलीभांती रक्षा हो सकती है । यदि श्रमणवर्ग चैत्य में रहना छोड़दे तो गृहस्थों से चैत्य की रक्षा होना असम्भव है कारण गृहस्थों को अपने घर के गोरखधन्धों से भी फुरसत नहीं मिलती है तो वे चैत्य की रक्षा किस तरह कर सकते हैं अतः मेरे दृष्टि कोण से तो चैत्यवास में भी जैन समाज का हित ही अन्तर्हित है। श्राचार्य ककसूरी ने श्रीबप्पभट्टसूरि की अान्तरिक, हृदयप्राहो चैत्यवास विषयकभावनाओं को श्रमण करने के पश्चात् आचार्यश्रीकक्कसूरिजी ने कहा - सूरिजी ! मेरे कहने का अभिप्राय चैत्यवास को तोड़ने का सबक नहीं है पर चैत्यावास में प्राप्त शिथिलता को दूर करने के उपायों के विषय में स्पष्टीकरण करने का है। वर्तमान में मब ही शिथिला एका क्रियाहीन नहीं है; आप जैसे उप्र,विहारी, शासनोद्धारकों की भी समाजमें कभी नहीं है पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर बिहार नहीं करने वाले चैत्यवासी मुनियों की भी अल्पता नहीं है। पप्पभट्टसूरि-सूरिजी ! आपका कहना सर्वाश में सत्य है। वास्तव में जैसे निर्मल बदन एवं स्वच्छ वस्त्रा. भूषणों से ही शरीर की शोभा है वैसे ही प्राचार विचार की निर्मलता एवं क्रिया की पवित्रता ही साधुत्व जीवन का श्रृंगार है । पर इसके साथ ही साथ यह ध्यान रखने योग्य बात है कि साहुकार की बड़ी दुकान में सब तरह का माल रहता ही है । दूकान दार किसी अल्प मूल्य वाले माल को या उस समय के लिये निरुपयोगी मालूम होने योग्य वस्तु को यों ही नहीं फेंक देता है वह समझता है आज हलके से हलकी ज्ञात होने वाली वस्तु भी कालांतर में कीमती हो सकती है अतः सब वस्तुओं को पूर्ण सम्भाल के साथ अपने पास रखना ही श्रेयस्कर है। इन्हीं विचारों से वह अपनी दुकान को सदा ही भरीपूरी रखता है । इसी तरह सूरीश्वरजी ! चारित्र पालन करना या आचार, व्यवहार विषयक नियमों में दृढ़ता रखना भी जीवों के कर्माधीन है। जिन जीवों के जितना चारित्र मोहनी कर्मों का क्षयोपशम हुआ है उतना ही बह निर्मल चारित्र पाल सकता है । चारित्र के पर्याय अनंत और संयम के स्थान असंख्य कहे हैं। एक छेदोपस्थापनीय चारित्र और दूसरे छेदापस्थापनीय चारित्र के पर्याय में षट्गुणी हानी वृद्धि होती है । शास्त्रकारों ने पांच प्रकार के पासत्ये बतलाये हैं पर उनमें भी चारित्र का सर्वथा अभाव नहीं कहा है । हां, जहां शिथिलाचार एवं क्रिया हीनता दृष्टि गोचर हो वहां हितकारी मधुर वचनों व प्रेम पूर्ण व्यवहार का उपयोग कर उन्हें उपविहारी व कर्तव्यामि मुखी बनाना अपना परम कर्तव्य है पर उनको समाज बहिष्कृत कर समाज के एक पुष्ट अङ्ग को काटना सर्वथा *नुचित है । सूरीश्वजी ! मैंने एतद्विषयमें आपश्री की श्रमण सभा करवा करवा कर शिथिलाचार को मिटाने की पद्धति को सुना; वह मुझे बहुत ही हितकर एवं श्रेयस्कर ज्ञात हुई । आपकी इस कार्य शैली की मैं हृदय से सराहना करता हूँ। मैं भी बनते प्रयत्न आपके इस शासनोत्कर्ष के कार्य में सहयोग देकर शासन सेवा का लाभ लेने के लिये कटिबद्ध हूँ । वास्तव में जितना उपकार इस प्रकार के प्रेम, स्नेह, सद्भाव, एवं एक्य से हो सकता है उतना द्वेष निंदा एवं अपने प्राचार की उत्कृष्टता सिद्ध करके दूसरे की लघुता बताने ११४० .. श्रमण संघ में शिथिलता पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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