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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १४७४-१५०८
सम्पत्ति स्वप्नवत् है, कुटुम्ब स्वार्थी है। शुभाशुभकर्मों का चक्र दिन रात की भांति हमेशा चलता ही रहता है न जाने किस समय किस भव के संचय किये हुए कर्मों का उदय होता है और किस परिस्थिति में उसे भोग लिये जाते है। अतः मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि अनुकल सामग्री के सद्भाव होने पर आत्म-कल्याण के परम पवित्र कार्य में संलग्न हो जाना चाहिये । ठीक, भैंसाशाह का भी यही हाल हुआ । एक दिन वह अपार सम्पत्ति का मालिक था पर अशुभ कर्मोदय से लक्ष्मी भैंसाशाह पर यकायक कुपित हो गई। फिर तो कहना ही क्या था ! शाह पर चारों ओर से आपत्तियों के आक्रमण होने लगे । कर्मों की विचित्रता के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है कारणकम तारी कला न्यारी हजारों नाच नचावे छ । घड़ी मां तु रडावे ने घड़ी मां तू हसावे छै ।।
भैंसाशाह भी कर्मों की पाशविक सत्ता से अछूता न रह सका। रह २ कर उस पर आपत्तियों के पहाड़ गिरने लगे। इधर तो देशावर भेजा हुआ माल व जहाजें समुद्रशरण हो गई और उधर दूसरे व्यापार में भी भारी क्षति उठानी पड़ी। क्रमशः पापकर्म पुत्र के आधिक्य से भैंसाशाह को अपने कुटुम्ब परिवार का निर्वाह करना भी कठिन हो गया। कहा है कि जब मनुष्य के दिन मान फिर जाते हैं तब अन्य तो क्या पर शरीर के कपड़े भी शत्रु हो जाते हैं।
भैंसाशाह का श्वसुराल भिन्नमाल नगर में था। भैंसाशाह की धर्मपत्नी यापसी गृह-क्लेश के कारण अपने पुत्रों को लेकर भिन्नमाल में चली गई थी। केवल भैंसाशाह भौर आपकी वृद्ध मातेश्वरी ही घर पर रही। इतना होने पर भी भैंसाशाह को इस बात का तनिक भी रंज नहीं था। वे तो इससे और भी अधिक प्रसन्न हुए कारण उन्हें हमेशा की अपेक्षा धर्माराधन का समय विशेष रूप में प्राप्त होता गया। वे निर्विघ्नतया धर्म कार्य में संलग्न हो प्रात्मःकल्याण करने लग गये।
गधाशाह ने अपने परमोपकारी सुहद्वर, एवं स्वधर्मी बन्धु भैंसाशाह की इस प्रकार की परिस्थिति देखकर समयानुसार एक दिन भैंसाशाह से कहा कि आपकी कृपा से मेरे पास बहुतसा द्रव्य है। अतः आप को जितने द्रव्य को आवश्यकता हो उतना मेरे से ले लीजिये । इसमें संकोच या शर्म की कोई बात ही नहीं है कारण, एक तो आप हमारे स्वधर्मी बन्धु हैं दूसरे श्रापका मेरे ऊपर महान उपकार है आज जो मैं सुख, शांति एवं आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ यह सब भी आपकी ही कृपा का मधुर फल है । यह सब धनराशि आपकी ही दया के बदौलत है। अतः मेरी प्रार्थना है कि श्राप इसे स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें।
भैंसाशाह-धाशाह ! आप जानते हो कि संसारी जीव अपने कृतकों के अनुसार ही सुख दुःख भोगते हैं। कमों के कटुफलों का यथार्थानुभव किये बिना तीर्थङ्कर जैसे महापुरुष भी उन्हें अन्यथा करने में समर्थ नहीं हुए हैं। दूसरा समग्यदृष्टि जीवों का तो कर्तव्य भी है कि उदीरणा करके पूर्व सश्चित कर्मों को उदय में लावे और उन्हें शान्ति के साथ भोगे। जब उदीरणा किये बिना स्वयं ही कर्म उदय में भाजावें तब तो बढ़ी ही खुशी के साथ कमों को भोगने चाहिये । कमों की सम्यगनिर्जरा के समय में इस प्रकार किसी से नया कर्जा लेना निश्चित ही नूतन कर्मोपार्जन के साधन है। शाहजी ! इस समय मैं किसी की भी सहायता नहीं चाहता हूँ और आपकी उदारता एवं मेरे प्रति दर्शाई गई सद्भावना के लिये आपका उपकार मानता हूँ।
गधाशाह-भैंसाशाह ! मैं श्रापको कर्ज की तौर पर रकम नामे लिखकर नहीं देता हूँ पर स्वधर्मी भाई के नाते प्रार्थना करता हूँ कि इसे आप स्वीकार करें।
भैंसाशाह-आप किसी भी रूप में दें पर मेरा हक ही क्या है कि मैं इस प्रकार का कर्जा लेकर नये कर्मों का सञ्चय करूँ।
गधाशाह-यदि आपकी किसी भव की रकम मेरे यहाँ जमा होगी तो उसको वसूल करनेमें क्या हर्ज है। भैंसाशाह के साधर्मी भाई गधाशाह
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