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________________ वि० सं० १०७४-११०८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कर अत्याग्रह से उपकेशपुर में स्थिर वास करने की प्रार्थना की । सूरिजी ने अपने शरीर की हालत देख तथा लाभालाभ का विचार वि० सं० ११०५ का चातुपद उपकेशपुर में वहीं स्थिरवास कर दिया। आपके पास वों तो बहुत से मुनि- र उनमें देवचन्द्रोपाध्याय नामक एक शिष्य सर्वगुण सम्पन्न, स्वतंत्र शासन चलाने में समर्थ था। का उस पर पहले ही विश्वास था फिर भी विशेष निश्चय के लिये देवी सच्चायिका की सम्मनि । उचित परामर्शानन्तर सूरिजी ने अन्तिम समय में चिंचट गोत्रीय देसरड़ा शाखा के शा० अकरण के द्वारा सप्त लक्ष द्रव्य व्यय कर किये गये अष्टान्दिका महोत्सव के साथ भगवान् महावीर क मन्दिर में चतुर्विध श्री संघ के समक्ष उपाध्याय देवचन्द्र को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्तसूरि रख दिया। बस, आचार्यश्री कक्कसूरिजी म० गच्छ चिन्ता से विमुक्त हो अन्तिम संलेखना में संलग्न हो गये अन्त में २१ दिन के अनशन पूर्वक समाधि के साथ आपश्री ने देह त्याग कर सुरलो में पदार्पण किया। . प्राचार्यश्री कक्कसूरिजी म० महान प्रभावक प्राचार्य हुए । श्राप २१ वर्ष पर्यन्त गृहवास में रहे ३४ वर्ष सामान्य व्रत और ३४ वर्ष तक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हो ८६ वर्ष का आयुष्य पूर्ण किया। वि० सं० २१८८ के चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन आपका स्वर्गवास हो गया। प्राचार्य कसूरिजी के पूर्व क्या वीर सन्तानिये और क्या पार्श्वनाथ सन्तानिये, क्या चैत्यवासी सुविहित और क्या शिथिलाचारी अनेक गच्छों के होने पर भी सब एक रूप हो शासन की सेवा करते थे। सिद्धान्त भेद, क्रिया भेद, विचार भेदादि का विविध २ गच्छों में विभिन्नत्व नहीं था। एक दूसरे को लघु दिखलाने रूप नीच कार्य में किसी के हृदय में जन्म नहीं लिया। यही कारण आ कि उस समय पर्यन्त जैनियों की संगठित शक्ति सुदृढ़ थी। धर्मवीर भंसाशाह और गदइया जाति-डिडूपुर-डिडवाना नामक एक अच्छा श्राबाद नगर था। वहाँ पर महाजनों की घनी आबादी थी डिडवाना निवासी अच्छे धनाढ्य एवं व्यापारी थे। उक्त व्यापारी समाज में आदित्यनाग गौत्रिय चोरडिया जाति के प्रसिद्ध व्यापारी एवं प्रतिष्ठित साहूकार श्री भैंसाशाह के नाम के धन वैश्मण भी निवास करते थे। आप जैसे सम्पत्तिशाली थे वैसे उदारता में भी अनन्य थे। अपने धर्म एवं पुण्यों के कार्य में लाखों ही नहीं पर करोड़ों रुपयों का सदुपयोग कर कल्याणकारी पुण्योपार्जन किया। स्वधर्मी बन्धुओं की ओर आपका विशेष लक्ष्य रहता था। जहाँ कहीं उन्हें किसी जैन बन्धुओं की दयनीय स्थिति के विषय में ज्ञात हुआ वहाँ तत्काल समयोपयोगी सहायता पहुँचाकर उसकी दैन्य स्थिति का अपहरण किया । इस प्रकार के धार्मिक कार्यो में आपको विशेष दिलचस्पी थी और इसीसे श्राप धर्म सम्बन्धी प्रत्येक काय में अग्रगण्य व्यक्तिवत् लाखों रुपया व्यय कर परमोत्साह पूर्वक भाग लिया करते थे। तीर्थयात्रार्थ पाँच बार संघ निकाल कर अापने संघ में श्रागत स्वधर्मी बन्धुओं को स्वर्णमुद्रिकाओं की प्रभावना दी। कई बार संघ को अपने घर पर आमन्त्रित कर तन, मन, धन से संघ पूजा की। यों तो आप प्रकृिति के परम भद्रिक एवं सबके साथ स्नेह पूर्ण वात्सल्यभाव रखने वाले सज्जन एवं कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे पर बप्पनाग गौत्रीय वीरवर गधाशाह के साथ आपका विशेष धर्मानुराग था । धर्म कार्य एवं अन्य सर्व समान्य कृत्यों में दोनों का सहवास एक दूस की सविशेष सहयोगप्रद था। किसी समय दुदेव वशात् गधाशाह की स्थिति अत्यन्त नरम हो गई उस समय भैसाशाह ने आपको अच्छी सहायता प्रदान कर अपनी समानता सा बना लिया। वि० सम्वत् १०६ में जब एक भीषण जन संहारक दुष्काल पड़ा था-भैंसाशाह ने लाखों रुपये व्यय कर दुष्काल को सुकाल बना दिया । भैंसाशाह और गधाशाह के नाम भले ही पशुओं जैसे हों पर इन दोनों महापुरुषों में वर्तमान गुमाताओं से भी अधिक थे। समय परिवत शाल है। ज्ञानियों ने बारम्बार फरमाया है कि संसार प्रसार है, लक्ष्मी चंचल है, Jain Ed?885 For Private & Personal Use Only For Private & Personal use Only वीरं भैसाशाह और गदइवा जाति. ora
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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