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________________ वि० सं० ५२०-५५८] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कारण सत्र साधुओं का निर्वाह वृक्षों के नीचे नहीं होता था अतः कोई कोई श्रमण पर्वत की गुफाओं का भी श्राश्रय लिया करते थे पर वह केवल उस बरसात के पानी से बचने के ही लिये । जब जंगल में रहने वाले श्रमण की संख्या बढ़ने लगी तो उनके भक्त राजा महाराजा एवं सेठ साहूकार लोग उन पर्वतों के अन्दर पत्थरों को खुदा खुदाकर गुफाएं भी बनाने लगे और श्रमण वर्ग उन गुफाओं के सहारे से निर्विघ्नतय ज्ञान ध्यान एवं सप संयम की आराधना करने लगे पर आत्मा हमेशां निभित वासी है समयान्तर एक दूसरे की स्पर्धा में मूल उद्देश को भूलकर एक दूसरे से आगे बढ़ने में लग जाते हैं यही हाल गुफाओं के विषय में हुए कई राजा महाराजाओं ने पुष्कल द्रव्य व्यय कर बड़ी नक्शीदार शिल्प का बहुत बढ़िया काम करवाने लगे किसी किसी स्थान पर तो दो दो तीन तीन मंजिल की गुफाएं भी बनाई गई और कहीं कही उन गुफाओं में दर्शनार्थ मन्दिर भी बनवा दिये गये । कहीं कहीं बढ़िया चित्र काम भी करवाये गये और पर्वतीय चटाणों पर शिलालेख भी अंकित करवा दिये कि यह गुफा अमुक श्रमण के लिये अमुक नरपति ने अमुक संवत् मिती में बनवाई थी । ज्यों ज्यों साधन बढ़ते गये त्यों-त्यों जंगल में रहने वाले श्रमणों की संख्या भी बढ़ती गई इससे जंगलों में हजारों गुफाएं भी बन गई जिससे अब जंगलों में रहने वाले श्रमणों को इतना कष्ट नहीं रहा कि जितना पहले था कारण पहले शीतोष्ण काल में वे कमों की उदिरणा के लिए जो कष्ट सहन करते थे वे अब सुख से गुफाओं में रहने लगे-जब गुफाओं में देव मन्दिर और देव मूर्तियों की भी स्थापना हो गई तथा पर्वत में खोद कर निकाली हुई भींतों पर भी देवों की मूर्तियां खुदा दी गई अब तो मूर्तियों के दर्शन करने वाले संघ भी प्रसंगोपात आने जाने लगा इत्यादि वे सब कारण श्रमणों के ध्यान के साधक नहीं पर बाधक ही सिद्ध हुए फिर भी जंगलों में एवं गुफामों में रहने वालों को निवृति के लिए काफी समय मिलता था वे गुफाएं किसी एक ही धर्म के श्रमणों के लिये नहीं थी पर सब धर्म के श्रमणों के भक्तों ने अपने २ गुरुओं के लिये बनाई थी जो वर्तमान शिलालेखों से सिद्ध होता है गुफाओं का प्रारम्भ का काल तो बहुत पुराना है पर विक्रम की आठवीं नौवीं और दसवीं शताब्दी तक तो गुफाओं का बनना जारी रहा था और उस समय तक बहुत से साधु गुफाओं में रहते भी थे। इतिहास से यह भी पता लगता है कि भारत में कई जन संहारक महा भयंकर दुष्काल भी पड़े थे वे भी एक दो वर्ष नहीं पर बारह २ वर्ष तक लगातार पड़ते ही रहे उस समय गृहस्थ लोगों को मोतियों के बराबर ज्वार के दाने मिलना मुश्किल हो गया था कहीं कही तो ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि कोई गृहस्थ अपने घर से भोजन कर तत्काल घर बाहर निकल जाय तो भुखमरे मंगते उसका उदर चीर कर उसके अन्दर से भोजन निकाल कर खा जाते थे हां ! भूखे मरते क्या नहीं करें ? भूख सबसे बुरी वस्तु है' मला जब गृहस्थों का यह हाल था तो जंगल में रहने वालों को भिक्षा मिलना तो कितना कठिन काम था आखिर अपने प्राणों की रक्षा के लिए उन जंगलव सी साधुओं को नगर का आश्रय लेना पड़ा पर इसका यह अर्थ नहीं है कि जंगल में रहने वाले सबके सब साधु नगरों में आ गये थे ? नहीं जिन्हों का गुजारा जंगलों में होता रहा वे जंगलों में ही रहे और ऐसे भी हजारों साधु थे पर उस श्रापत्तिकाल में उनके श्राचार-विचारों में अवश्य परिवर्तन हो गया था जब कि दुकाल के अन्त में सुकाल हुआ तब भी नगरों में रहने वाले श्रमण पुनः गुफाओं में रहने को नहीं गये कारण जंगलों की अपेक्षा अब नगरों में उनको १००४ भारतीय-गुफाए' Jain Education themational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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