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वि० सं० ५२०-५५८]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
तो उसको विचार हुआ कि अभीच कुँवर मेरे एक ही पुत्र है, यदि इसको राज दे दिया जाय तो यह भोग विलास एवं राज में मूच्छित होकर संसार में परिभ्रमण करेगा, इससे तो उचित है कि मेरे भानेज केशीकुमार को राज देकर मैं भगवान महावीर के पास दीक्षा ले लूं। यदि इस बात का खुलाम कर देता तब तो कुछ भी नहीं था पर बिना किसी को कहे अपने स्थान पर केशीकुमार को राज देकर राजा उदाई बड़े ही समारोह से मगवान महावीर के कर कमलों से भगवती जैन दीक्षा स्वीकार कर ली । यह बात राजकुमार अभीच को सहन न हुई । कारण जब राजा का पुत्र हक्कदार तो बैठा रहे और जिसका राज के लिए कुछ भी हक नहीं वह राजा बन जाय | पर अभीचकुमार विनयवान पुत्र था, उस समय कुछ भी नहीं कहा । बाद में भी जब उससे देखा नहीं गया तो वह अपना कुटुम्बादि सबको लेकर अंग देश की चम्पा नगरी जहां अपनी मासी का बेटा राजा ऋणिक राज कर रहा था, वहां चला गया । ऋणिक ने अभीच कुमार का अच्छा स्वागत किया और आदर सत्कार के साथ अपने पास रख लिया। अभीचकुमार ऋणिक के पास आनन्द में रहता था, जैनधर्म में उसकी अटल श्रद्धा थी पर राजर्षि उदाइ के साथ उनका थोडा भी सद्भाव नहीं रहा । यों भी कहा जाता है कि अभीचकुमार जब नवकार मन्त्र का जाप करता था तब कहता था कि "नमोलोए सव्व साहूँण" उदाइ साधु को वर्ज कर सब साधुओं को नमस्कार हो । चौथा आरा में भी पंचम श्रारा की प्रभा पड़ गई थी कि उपकार के बदले में अपकार से पेश आया। आगे राजर्षि उदाइ सिद्ध होगये तो भी अभीच का उनके प्रति द्वेष कम नहीं हुश्रा। यह सिद्धों को नमस्कार करते समय भी उदाइ सिद्ध को वर्ज कर हो सब सिद्धों को नमस्कार करता था । यही कारण था कि अभीच कुमार को अभोगी देव का भव करना पड़ा । बाद में वह महाविदह क्षेत्र में मोक्ष को जायगा।
राजर्षि उदाई दीक्षा लेकर अन्यत्र बिहार कर दिया कितनेक समय के बाद राजा उदाई के शरीर में बीमारी हो गई और वह चल कर पुनः वीतमय पट्टण में आकर एक कुम्भकार के मकान में ठहरा राजा केशी
आदि बन्दन करने को आये और प्रार्थना की कि आप राज मकान में पधार जाइये आपके बीमारी का भी इलाज करवाया जायगा वैद्य हकीमों को भी ले गया वैद्यों ने राजा की बीमारी देख कर दही का प्रयोग बतलाया पर कई धर्म द्वषो लोगों ने राजर्षि उदाई को मरवा देने का दुष्टविचार कर के राजा केशी के पास आकर कहा कि राजर्षि दुष्कार संयम पालन करने से पराङ्मुख हो वापिस राज लेने के लिये आये हैं अतः इनको मरवा देना ही अच्छा है ? इस पर राजा केशी ने कहा कि ऐसा हो नहीं सकता है इस पर भी यदि राज लेना चाहे तो यह राज उनका ही है खुशी से ले पर मुनि हित्या करना तो क्या पर कानों में सुनने से भी पाप लगता है अतः ऐसी बात मेरे सामने कभी नहीं करना तथापि उन द्वेषियों ने दही के अन्दर विष दिला देने की नीचता कर डाली जब राजर्षि उदाई दही लाकर खाया तो उसके सब शरीर में विष व्यापक हो गया उस समय देवता ने आकर राजर्षि को कहा कि आप इसके लिये प्रयोग करे कि विष अपना असर नहीं करे पर राजर्षि ने इसको स्वीकार न कर अपने कर्म भोगने के लिये उस परिसह को सम्यक् प्रकार सहन कर शेष कमों की निर्जरा करते हुए नाशमान शरीर को छोड़ मोक्ष में पधार गये--
इस अकृत्य कार्य से देवता कुपित हो ऐसी धूल की वृष्टि की कि एक कुम्भकार का घर छोड़ कर सब नगर धूल के नीचे दब गया जिसको पट्टन दट्टन कहते हैं । जब पट्टन ट्टन हो गई तो सिन्धु सौवीर का राज राजा कूणिक ने अपने मगद साम्राज्य में मिला लिया। ९७२
देवकोप से पट्टन दट्टन
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