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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १२०-९५८
___ कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् हेमचन्द्र सूरि के समय राजा कुमारपाल सिन्धु सौ वीर के भूमि गर्भ से एक मूर्ति प्राप्त की थी जिसको हेमचन्द्र सूरि ने राजा उदाई के मन्दिर की महावीर मूर्ति बतलाई थी। तथा वर्तमान सरकार के पुरातत्व विभाग की ओर से भूमि का खोद काम हुआ जिसमें सिन्धु सौवार की भूमि से एक नगर निकला है । जिसका नाम मोहनजादरा एवं दूसरा नगर का नाव 'हराप्पा' रखा है यह वही नगर है जो राजा उदाइ के बाद देवताओं की धूल वृष्टि से भमि में दख गये थे विद्वानों ने उन नगरों को ई० सं० पूर्व कई पाँच हजार पूर्व जितने प्राचीन बतलाये हैं। उन नगरों के अन्दर से निकलते हुए प्राचीन अनेक पदार्थों ने भारत की सभ्यता पर अच्छा प्रकाश डाला है विशेष में उन नगरों का हाल पढ़ने की सूचना कर इस लेख को समाप्त कर देता हूँ।
८--शूरसेन देश-इस देश की राजधानी मथुग नगरी में थी मथुग भी एक समय जैनों का बड़ा भारी केन्द्र था कई जैनाचार्यों ने मथुरा में चतुर्मास किये थे और मथुरा नगरी में जैन मन्दिर एवं स्तूप सैकड़ों की संख्या में थे जिनकी यात्रार्थ कई आचार्य बड़े २ संघ लेकर आते थे। मथुरा नगरी में एक समय बौद्धों के भी बहुत से संघाराम थे और सैकड़ों बौद्ध साधु वहाँ रहते थे कई बार जैनों और बौद्धों के बीच शास्त्रार्थ होना भी जैन पट्टावलियों में उल्लेख मिलते हैं दिगम्बर जैनों में एक माथुर नाम का संघ है और श्वेताम्बर समाज में मथुरा नाम का गच्छ भी है जैन श्वेताम्बर में आगम वाचना मथुरा में हुई थी और
आज भी मह माथुरी वाचना के नाम से मशहूर है । मथुरा में क्षत्रप और महाक्षत्रप राजाओं ने भी राज किया था उनके बनाया हुआ जैन स्तूप आज भी विद्यमान है और उन राजाओं के कई सिक्के भी मिले हैं उन पर भी जैन चिन्ह विद्यमान है जिसको हम स्तूप एवं सिक्का प्रकरण में लिखेंगे । मथुरा पर गुप्तबशियों का भी राज रहा है उनका शिलालेख एक जैन मूर्ति पर मिला है । मथुरा पर कुशान वंशियों का भी शामन रहा है उनके शिलालेख एवं सिक्के भी मिले हैं उनके सिक्कों पर भी जैन चिन्ह खुदे हुए पाये जाते हैं पर खेद है कि कई विद्वानों ने जैन और बौद्धों को एक ही समझ कर उन स्तूप एवं सिक्कों को बौद्धों के ठहरा दिये हैं पर वास्तव में उनके चिन्हों से वे जैनों के ही सिद्ध होते हैं मथुरापति महाक्षत्रप राजुबुल की पदरानी में जैन स्तप की बड़ा ही समारोह से प्रतिष्ठा करवाई थी जिसमें भूमिक महाक्षत्रिप को भी श्रा. मंत्रण किया था और नहपाण वगैरह भी उस प्रतिष्ठा में शामिल हुए थे फिर समझ में नहीं आता है कि यह सूर्य जैसा प्रकाश होते हुये भी उन जैन स्तूप एवं सिकों को बौद्धों का कैसे बनाये जाते हैं खैर इस विषय में हम अगले पृष्ठों पर लिखेंगे यहाँ पर तो केवल मथुरा के कुशानवंशियों की वंशावली ही देदी जाती है। नं० | राजाओं के नाम | समय ई० सं० वर्ष | नं0 | राजाओं के नाम | समय ई. सं० | वर्ष कडफसीम (१) ३१ से ७१ ४० ५ दुनिष्क
१३२ से १४३ / ११ कडफसीम (२) ७१ से १०३ ६ / कनिष्क (२) १४३ से १९६ ! ५३ कनिष्क १०३ से १२६
वासुदेव
९६ से २३४ | ३८ ४ वसिष्क १५६ से १३२
८ सात गजों का | २३४ से २८० । ४६ श्रीमान् त्रि० ले० शाह के प्राचीन भारतवर्ष पुस्तक के आधार पर । शूरसेन-मथुरा नगरी
९७३
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