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________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मैं भी आचार्य कक्कसूरि के प्रति नवीन स्थान होगया । वे विचारने लगे कि जैसा मैं श्रीकक्कसूरिजी के लिये सुनता था वह सोलह आना सत्य ही निकला । श्राचार्यश्रीकक्कसूरिजी म० शासन के दृढ़ स्तम्भ हैं । ये जैसे विद्वान हैं वैसे ही प्रचार करने में शुरवीर हैं। शासन के हित की भावना से तो श्रापका रोम २ श्रोत प्रोत है यही कारण है कि आप अत्र तत्र सर्वत्र ही वादियों की दाल को नहीं गलने देते हैं । इस प्रकार पारस्परिक गुणप्रामों को करते हुए कई दिनों तक दोनों श्राचार्य श्री साथ में ही रहे । कालान्तर के पश्चात् आचार्यश्री ककसूरीश्वरजी ने सुना कि वादियों का जोर पूर्व की ओर बढ़ रहा है, अतः आचार्य बप्पभट्ट सूरि से समयानुकूल परामर्श कर अपने अपने विद्वान शिष्यों के साथ पूर्व की ओर प्रस्थान कर दिया | उद्योगी एवं कर्मशील पुरुषों के लिये कौनसा कार्य दुष्कर होता है ? वे जहाँ जहाँ जाते हैं वहीं ही अपनी प्रखर प्रतिभा के बल से नवीन सृष्टि का निर्माण कर देते हैं । मनस्वी, कार्यार्थी के लिये संसार में कोई भी मार्ग दुरुह नहीं है । वे तो अपनी कार्य शक्ति की प्रबलता से हर एक मार्ग को 1 सुगम एवं रमणीय बना देते हैं । तदनुसार हमारे आचार्यश्री जिस मार्गजन्य नाना परिषदों एवं यातनाओं को सहन करते हुए धर्म प्रचार की उच्चतम अभीप्सित भावनाओं से प्रेरित हो क्रमशः लक्षणावती के नजदीक पहुँचे । उस समय लक्षणावती में राजा धर्मपाल राज्य करता था । लक्षणावती नरेश को भी वादी कुज्जरकेशरी श्राचार्यश्रीबप्पभट्टसूरि ही ने प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। राजा धर्मपाल ने कक्कसूरीश्वरजी का भागमन सुनकर बहुत प्रसन्नता प्रकट की । आचार्यश्री की नैसर्गिक प्रशंसा को राजा धर्मपाल कई समय से सुनता आ रहा था अतः श्राज उनके प्रत्यक्ष दर्शन एवं चरण सेवा का लाभ लेकर अपने को कृतकृत्य बनाने के लिये वह उत्कण्ठित हो गया । जब श्राचार्यश्री लक्षणावती के बिल्कुल समीप में पधार गये तब राजा धर्मपाल अपनी सामग्री लेकर श्रीसंघ के साथ सूरीश्वरजी के स्वागतार्थ सम्मुख गया । क्रमश आचार्यश्री का नगर प्रवेश महोत्सव भी लक्षणावती नरेश ने बड़े ही शानदार जुलूस के साथ में किया। मगर प्रवेशानंतर स्थानीय मन्दिरों के दर्शन का लाभ लेकर श्राचार्यश्री उपाश्रय में पधारे। स्वागतार्थ श्रागत मण्डली को प्रथम माङ्गलिक बाद हृदय स्पर्शिनी देशना दी। सूरीश्वरजी के उपदेश एवं बोलने की सविशेष पटुता का श्रोताओं के हृदय पर जादू सा प्रभाव पड़ा । श्राचार्यश्री की प्रतिभायुक्त बाणी से प्रभावित हो राजा धर्मपाल एवं लक्षणावती श्रीसंघ ने चातुर्मास का परम लाभ प्रदान करने के लिये सूरिजी की सेवा में श्रामह भरी प्रार्थना की । श्राचार्यश्री ने भी उनका अधिक आग्रह देख धर्मोन्नति रूप लाभ को लक्ष्य में रख वह चातुर्मास लक्षणावती में ही कर दिया। इस चातुर्मास के निश्चय से श्रीसंघ की भावना में और भी दृढ़ता गई। राजा धर्मपाल तो सूरीश्वरजी के सत्संग से जैन-धर्म के रंग में रंग गया। उसको जैनधर्म के सिवाय अन्य धर्म नीरस एवं सारहीन प्रतीत होने लगे । जैनधर्म का स्याद्वाद सिद्धान्त तो उन्हें बहुत ही रुचिकर व्यवस्थित एवं उपयोगी ज्ञात होने लगा । इस प्रकार राजा के संस्कारों को जैन धर्म में सविशेष स्थायी एवं द करके श्रीसंघ के धर्मोत्साह में भी उपदेश के द्वारा आशातीत वृद्धि की । चातुर्मास के सुदीर्घकाल में अष्टान्हिका महोत्सव, मासक्षमण, पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य, सामायिक, प्रतिक्रमणादि धार्मिक कृत्यों के प्राधिक्य से प्राचार्यश्री ने लक्षणावती को धर्मपुरी बना दिया । इस प्रकार धर्मोद्योत करते हुए चातुर्मासानंतर आचार्यश्री विहार करते हुए क्रमशः वैशाली राजगृह वगैरह प्रदेशों में घूमते हुए पाटलीपुत्र पधारे। आपके आगमन समाचार प्राय: पहले ही पहुँच चुके थे श्रतः श्राचार्यश्री के नाम श्रवण मात्र से वादियों ११४२ Jain Education International आचार्य श्री का पूर्व प्रान्त में बिहार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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