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________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० आप त्याग वैराग्य की धून में संसार के दुःखों का वर्णन करते थे तब अच्छे अच्छे लोग कांप उठते थे और उनकी भावना संसार त्याग ने की हो जाति थी । इतना ही क्यों पर कई महानुभावों ने तो सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेने का भी निश्चय कर लिया। एक समय आचार्य कक्कसूरिजी आत्म ध्यान में रमणता के अन्त में जैनधर्म का चार के निमित विचार कर रहे थे ठीक उसी समय देवी सच्चायिक ने आकर वन्दन की उतर में सूरिजी ने धर्मलाभ दिया । देवी ने कहाँ पूज्यवर ! आप बढ़े ही प्रभावशाली है आपके पूर्ण ब्रह्मचर्य और कठोर तपश्चर्य का तपतेज बड़ा ही जबर्दस्त है कि भिन्नमाल जैसे जटिल मामला को श्रापश्री ने बड़े ही शांति के स थ निपटा दिया यह आपके गच्छ का भावि अभ्युदय का ही सूचक है । पूज्यवर ! यह भी आपने अच्छा किया कि तीनों श्राचार्यों ने शामिल चतुर्मास कर दिया, इत्यादि । सूरिजी ने कहा देवीजी आप जैसी देवियों इस गच्छ की रक्षिका है फिर हमको फिक्र ही किस बात का है । प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के पुन्यप्रताप से सब अच्छा ही होता हैं । देवी जी अाज मेरी यह भावना हुई है कि मैं आज से पांचों विगई का त्याग कर छट छट पारण (आंबिल) करू कारण दुष्ट कमों की निर्जग तप से ही होता है ? -देवी ने कहा प्रभो ! आपका विचार तो अत्युतम है पर आप पर अखिल गच्छ का उत्तरदायित्व हैं आपके विहार एवं व्याख्यान से जनता का बहुत उपकार होता है यदि आप आहार करते हो तो भी आपके तो तपस्या ही है इत्यादि ! इसपर सूरिजी ने कहाँ देवीजी मेरी तपस्या में विहार और व्याख्यान की रुकावट नहीं होगा अतः मेरी इच्छा है कि मैं आज से ही छट छट पारण करना प्रारम्म कर, । देवीने कहाँ ठीक हैं गुरुदेव कर्म पुंज जलाने के लिये तप अग्नि समान हैं हम लोग तो सिवाय अनुमोदन के क्या कर सकती है। पर आप अपने शरीर का हाल देख लिरावे सूरिजी ने कहा कि शरीर तो नाशमान है इसके अन्दर से जितना सार निकल जाय उतना ही अच्छा है देवी ने सूरिजी की खूब प्रशंसा करती हुई वन्दन कर चली गई और आचार्य श्री ने उसी दिन से छट छट यानि दो दिन के अंतर पारण करना शुरु कर दिया। जिसकी किसी को मालुम नहीं पड़ने दी। परन्तु बाद में आचार्य नन्नप्रभसूरि को मालुम हुआ तो सूरिजी ने फरमाया कि आप हमारे शासन एवं गच्छ के स्तम्भ है आपके तो हमेशा तप ही है यदि आप विहार कर भव्यों को उपदेश करेंगे तो अनेक जीवों का उद्धार कर सकोगे इत्यादि । ककसूरि ने कहा कि श्रापका कहना बहुत अच्छा है मैं शिरोधार्य करने को तैयार हूँ पर जब तक मेरे विहार एवं व्याख्यान में हर्जा न पड़े वहाँ तक निश्चय किया हुआ तप करता रहूँगा। आचार्य कमासूरि तपके साथ योग आसन समाधि और स्वरोदय के भी अच्छे विद्वान थे इतना ही क्यों पर अपने साधु त्रों के अलावा दूसरे गच्छो के एवं अन्य धर्म के मुमुक्षु लोक भी योग एवं स्वरोदय ज्ञान के अभ्यास के लिये आपश्री की सेवा में रहा करते थे-जैसे आप ज्ञानी थे वैसे ज्ञान दान देने में बड़े ही उदार थे आये हुए महमानों का अच्छा मान पान रखते थे और उनके सब अावश्यकता को भी श्रापश्री अच्छी सुविधा से पूर्ण करते थे। अतः आपके पास रहने से किसी को भी तकलीफ नही रहती थी। भिन्नमाल का श्रीसंघ तीनों प्राचार्यों का चतुर्मास कर. वाने में खूब ही सफलता प्राप्त की थी पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य तप जपादि सद कार्यों से धर्म की एवं शासन की खूब ही उन्नति की इतना ही क्यों पर सूरिजी का वैराग्य मय व्याख्यान सुनकर कइ १८ नर-नारी दीक्षा लेने को भी तैयार हो गया चतुर्मास समाप्त होते ही सूरिजी के कर कमलों से उन सबकों भव भंजनी दीक्षा देकर उनका उद्धार किया । आचार्यश्री की ज्ञानदान की उद्धारता ] nainamammine Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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