SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 603
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि. सं. ८३७-८९२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास (२१)-कंचुक-अपने शरीर के प्रमाण कसों से बांधे जाने वाला । स्तनों पर कंचूकाकार । (२२)-उपकक्षिका-डेड़ हाथ समचोर से दाहिनी काख ( कक्षभाग) ढके उतना वस्त्र । (२३)-वैकक्षिका-यह पट्टे के आकार की होती है । बायीं बाजू पहिनी जाती है। यह उपकक्षिका और कंचुक को ढकती है। (२४)-संघाटी-अर्थात् साध्वियें चार चादर रख सकती हैं । ये चारों ३।। से चार हाथ लम्बी चद्दर निम्न प्रकार के काम की होती है: [१]-दो हाथ चोड़ी चादर उपाश्रय में श्रोढ़ने के काम में आती है। [२]-तीन हाथ चोड़ी चद्दर गोचरी के लिये जाते समय काम में आती है। [३] —तीन हाथ चौड़ी चद्दर स्थण्डिल भूमिका जाते हुए ओढ़ने के काम में आती है। [४]-चार हाथ के पने की चादर मुनियों के व्याख्यान में या स्नात्रादि धर्म महोत्सव में जाने के समय काम में आती है क्योंकि, वहां अनेक प्रकार के मनुष्य एकत्रित होते हैं अतः साध्वी को अपने अङ्गोपाङ्ग इस तरह से आच्छादित करने पड़ते है कि नाक को अणी और पग की एड़ी भी पुरुष नहीं देख सकते हैं। (२५)-स्कंधकारिणी-ऊन का चार हाथ समचोरंस वस्त्र जो स्कंध पर डाला जाता है । इत्यादि यह तो औधिक उपकरण का उल्लेख हुआ है पर इनके अलावा औपग्रहिक उपकरणों का भी शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। इन औपग्राहिक उपकरणों में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट उपकरणों के नाम हैं । जैसे उत्तरपट, दण्डपञ्चक, पुस्तकपनक वगैरह । इन सबका प्रयोजन ज्ञान दर्शन चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना में सहायक होने का ही है। जैन धर्म एक ऐसा विशाल धर्म है कि इसमें अनेकान्त दृष्टि से सब बातों का समावेश अत्यन्त सुमता पूर्वक हो सकता है। जैन धर्म का हृदय समुद्र के समान गम्भीर है यही कारण है कि इधर पाणिपात्र जिनकल्पी और उबर औधिक औपग्रहिक उपकरणों को रखने वाले साधु को भी मोक्ष मार्ग की आराधना के लिये स्थान दिया गया है। उपकरण-उपाधि रक्खे या न रक्खे-यह अपनी रुचि एवं दैहिक सामर्थ्य-संहनन शक्ति पर निर्भर है पर परिणामों में विशुद्धता एवं विकास किसी भी अवस्था में होना आत्मोन्नति के लिये आवश्यक ही है। आगे चल कर सूरिजी ने कहां-सज्जनों! आप जानते हैं कि भूमि शुद्ध होने से उसमें बोया हुआ बीज भी यथानुकूल फल को देने वाला होता है अतः प्रसङ्गोपात दीक्षा लेने वाले मुमुक्षुओं का हाल जान लेना भी आवश्यक है कारण धर्म बीज बोने के लिये भी उचित क्षेत्र, गुण, व्यवसाय, पराक्रमादि की नितान्त आवश्यकता रहती है । दीक्षा लेने वाला सब प्रकार से योग्य एवं निर्दोष होना चाहिये । जैसे: १-बाल न हो-बाल दो प्रकार के होते हैं, एक वय बाल--जो छोटी अवस्था के कारण दीक्षा के महत्व को समझता नहीं हो और दूसरा ज्ञान बाल जो वय में अधिक होने पर भी दीक्षा के स्वरूप एवं ज्ञान से अनभिज्ञ हो । ये दोनों ही बाल, दीक्षा के लिये सर्वथा अयोग्य हैं। २-वृद्ध-जिसका शरीर एवं इन्द्रिय बल क्षीण हो चुका है जो दीक्षा रूप भार को वहन करने में असमर्थ है। ऐसा वृद्ध भी दीक्षा के लिये अयोग्य है। ३-नपुंसक-स्त्री और पुरुष दोनों की अभिलाषा रखता हो कई प्रकार की कुचेष्टाएं कर अपना व पर का अहित करने वाला हो वह भी दीक्षा के लिये अयोग्य है । ४-कृत नपुंसक-जिसके मोहनीय कर्म का प्रबल उदय हो, स्त्रियों को देखने मात्र से काम विकार पैदा हो जाता हो। ५-जड़-जड़ तीन प्रकार के होते हैं ? भाषा जड़ अस्पष्ट भाषी, क्रोधी या बहुत वाचाल हो ।२-शरीर जड़-अर्थात्-शरीर स्थूल, वक्र व प्रमाद परिपूर्ण हो ३-करणजड़-कर्तव्य मूढ़-हिताहित को नहीं जानने १३३२ जैन साध्वियों के धर्मोंपकरण For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy