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________________ श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] वाला | ये तीनों जड़ दीक्षा ले लिये अयोग्य हैं । ६ - रोगी - जिसके शरीर में खास करके श्वास, जलंदर, भगंदर कुष्टादि रोग हो । ७- अप्रतीत-संसार में चोरी जारी आदि कुकृत्य किये हो । जिसकी किसी भी तरह से प्रतीतिविश्वास नहीं होता हो ऐसा भी अयोग्य ही है । ८- कृतघ्नी- राजद्रोही, सेठ द्रोही, मित्र द्रोही आदि घृणित कार्य किये हो । -पागल- बेभान - परवश हो । जिसको भूत प्रेत शरीर में आता हो । १० - हीनांग - अन्धा, बहरा, मूक, लूला, लंगड़ा हो । ११ - स्त्यानगृद्धि - निद्रा वाला हो । जो निद्रा में सग्राम तक भी कर आवे । १२ – दुष्ट परिणामी – दुष्ट विचार या प्रतिकार की बुरी भावना रखने वाला हो। (जैसे कषाय दुष्ट साधु ने क्रोधावेश में अपने मृत्गुरु के दाँत तोड़ डाले । ) विषय दुष्ट स्त्रियों को देख दुष्टता, कुचेष्टा करने वाला हो । १३- मूढ़ - विवेक हीन, जो समझाने पर भी न समझे । [ सवाल सं० १२३७-१२१२ १४ - ऋणी - कर्जदार हो । १५ - दोषी - जातिकर्म से दूषित हो; जिसके हाथ का पानी ब्राह्मण, वैश्य नहीं पीते हों । १६ - धनार्थी - रुपये की प्राप्ति या धनाशा से मन्त्रादि विद्या का साधन करने वाला हो । १७ - मुद्दती देवाला - किसी साहुकार के कर्ज की किश्तें करदी शें पर बीच में ही दीक्षा लेना चाहता हो । १८- श्रज्ञा-माता, पिता, कुटुम्ब वगैरह की आज्ञा न हो । उक्त १८ दोष वाला पुरुष और गर्भवती व छोटे बच्चे की मातारूप २० दोष वाली स्त्रियाँ दीक्षा के लिये सर्वेथा अयोग्य होती हैं । इन दोषों से दूषित व्यक्तियों को दीक्षा नहीं दी जाती है । जातिवान्, कुलवान, बलवान्, रूपवान् लज्जावान, विनयवान्, ज्ञानवान्, श्रद्धावान्, जितेन्द्रिय, वैराग्यवान्, उदारचित्त, यत्नवान्, शासन पर प्रेम रखने वालों व आत्म कल्याण की भावना वाला, अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ एवं १२ प्रकृतियां तथा तथा मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, सर्व १५ प्रकृतियों के क्षय अथवा क्षयोपशम वाले व्यक्ति को ही दीक्षा देनी चाहिये। ऐसा योग्य पुरुष ही वैराग्य की भावनाओं से ओत प्रोत होता है और वही पुरुष स्वपर की आत्मा का कल्याण करने में समर्थ होता है। श्रोताओं ! दीक्षा कोई साधारण बालोचित क्रीड़ा नहीं है कि इसको हर एक चलता फिरता आदमी ही ग्रहण करले । यह तो हस्तियों के उठाने रूप भार है; जो समर्थ हस्ति ही उठा सकता है। शृगाल जैसा तुच्छ पामर प्राणी इसका आराधन कदापि काल नहीं कर सकता है। इसके लिये तो आत्मा संयम, दृढ़ वैराग्य, संसार त्याग की उच्चतम भावनाओं का होना जरूरी है। इसके साथ ही साथ यह भी याद रखने की बात है कि दीक्षा को अङ्गीकार किये बिना जीव का आत्म कल्याण हो ही नहीं सकता। चाहे इस भव में दीक्षा को स्वीकार करो या अन्य भव में- दीक्षा स्वीकार करना तो मोक्ष मार्ग की आराधना के लिये आवश्यक हो ही जाता है। जन्म, जरा और मृत्यु के विषम, भयावह दुःखों से विमुक्त करने के लिये भी सबसे समर्थ, साधकतम कारण व अनन्योपाय दीक्षा रूप ही है। बड़े २ चक्रवर्ती राजा महाराजाओं को भी मोक्ष मार्ग की आराधना के लिये चारित्र वृत्ति का आराधन करना ही पड़ा। बिना पौदगलिक पदार्थों का त्याग किये आत्म कल्याण नितान्त अशक्य है । इस प्रकार सूरिजी ने खूब ही प्रभावोत्पादक वक्तृत्व दिया जिसको श्रवण कर कई भोगी भी योगी बनने के इच्छुक हो गये | सन्यासीजी ने तो व्याख्यान में ही निश्चय कर लिया कि- मुझे अब शीघ्र ही सूरीश्वरजी म० की सेवा में दीक्षा स्वीकार करना है अस्तु, दीक्षा धारण करने के लिये योग्यायोग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only १३३३ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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