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________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कुछ काल के बुरे प्रभाव से जब भोगभूमि मनुष्यों को कल्पवृक्षों से फलादि साधन कम मिलने लगे तब वे लोग आपस में क्लेश करने लगे इस हालत में उन क्लेश पीडित मनुष्यों को समझाने एवं इन्साफ देने वालों की आवश्यकता होने लगी । अतः कुलकरों की स्थापना हुई। और उन कुलकरों ने क्रमशः हकार मक्कार और धिक्कार दंडनीति कायम की। पर काल के सामने किसकी चल सके युगल मनुष्यों में वैमनस्य बढ़ता ही गया । इस हालत में अन्तिम कुलकार नाभी के मरुदेवी पत्नि की कुक्षीसे ऋषभ नामक पुत्र का जन्म हुआ जिसका जन्म महोत्सव देव देबीन्द्रों ने किया था । जव ऋषभ माता के गर्भ में आया था तो तीन ज्ञान स्व से साथ में ही लेकर आया था जिनसे भूत, भविष्य और वर्तमान को ठीक हस्तामल की भाँति जाने एवं देख सकते थे । योग्याबस्था में आने पर नाभी कुलकर ने युगल मनुष्यों के लिये ऋषभ को राजा मुकर्रर कर दिया । ऋषभ देव ने काल का स्वरूप जानकर उन दुःख पीड़ित युगल मनुष्य को असी (क्षत्रिय कर्म) मसी (वैश्य कर्म) कभी (कृषी कर्म) हुन्नरोद्योग, कला-कौशल अर्थात् पुरुषों को ७२ कलाओं का और महीलाओं को ६४ कलाओं का बोध करवाया, जिससे युगल मनुष्य अपने श्रावश्यकता के सब पदार्थ स्वयं पैदा कर अपना जीवन सुख सेव्यतीत कर सके और ऐसा ही वे करने लगें । इधर इन्द्र के श्रादेश से देवताओं ने एक, वारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी अमरापुरी सहर atta नगरीका निर्माण किया और शुभ मुहुर्त में ऋषभ का राज्याभिषेक भी कर दिया। ऋषभ के विवाह के लिये एक कन्या आपके साथ युगल रूप में ही उत्पन्न हुई थी । तब दूसरा एक नूतन जन्मा हुआ युगल भा एक तालवृक्ष के नीचे खड़े थे । काल के क्रूर प्रभाव से ताड़ का फल अकस्मात टूट कर युगल मनुष्य के कोमल अंग पर पड़ा जिसकी चोट से वह युगल मनुष्य मर गया । तब उसकी बहिन अकेली रह गई अन्य युगलियों ने उसे लाकर नाभी के सुपुर्द को और नाभी ने कहा कि - यह कन्या हमारे ऋषभकी पत्नि होगी बस इन्द्रने सुनन्दा और सुमंगला इन दोनों युगल कन्याओं का विवाह ऋषभ के साथ कर दिया। यह पहिला ई विधि संयुक्त विवाह था जिसमें वर पक्ष का सब कार्यविधान इन्द्रने किया और वधूपक्ष का कार्य इन्द्राणी ने किया त से उन मनुष्यों में विवाह पद्धति प्रचलित हुई । इस प्रकार युगल धर्म को वे मनुष्य भूलते गये और कर्मभूर्म की प्रवृत्ति सर्वत्र प्रचलित होती गई। ऐसी दशा में ऋषभदेव ने उन मनुष्यों की सुविधा के लिये चार कु स्थापनकर उस समय के मनुष्यों को चार विभागों में विभाजित कर दिये जैसे कि:-- १ - उम्रकुल - जिन मनुष्यों की उप्रप्रकृति और जनता का रक्षण करने में समर्थ थे वे उपकुली । २ - भोगकुल- जिन मनुष्यों में शांन्ति, तुष्टि, पुष्टि और विद्या प्रचार करने की योग्यता थी वे भोगकुल २ --- राजन कुत-जिन मनुष्यों में राज करने की योग्यता थी (खास ऋषभ का घराना) वे राजन् कुली ४ - क्षत्रीयकुल- शेष जितने मनुष्य रहे उन सब का क्षत्रिय कुल स्थापन कर दिया । इस प्रकार चार कुनों की व्यवस्था होने से उस समय के मनुष्यों की उत्तरोत्तर उन्नति होती गई इस प्रकार संसार सुधार के लिये भ० ऋषभदेवने अपने जीवन का अधिक समय लगादिया अर्थात् भगवान् ऋषभदेव का ८४ लक्ष पूर्व का सब आयुष्य था जिसमें २० लक्षपूर्व कुमारपद ६३ लक्षपूर्व राजपदपर रह कर संसार सुधार किया | आपके भारत बाहुवलादी १०० पुत्र और ब्रह्मी सुन्दरी पुत्रियाँ हुई तत्पश्चात् भ० ऋषभदेवने दीक्षा लेकर ज्ञान प्राप्त कर मोक्षमार्ग का उपदेश दिया । इस प्रकार ऋषभदेव से चार कुलों की स्थापना हुई ! ३ -- वर्ण - भगवान् ऋषभदेवने जनकल्याणार्थ धर्मोपदेश दिया जिसका सारांश भाव संग्रह कर भरत ११५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only भ० ऋषभदेव द्वारा चार कुल www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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