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________________ आचार्य कक्कसूरी का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ कुल वर्ण-वंश-गौत्र और जातियां इस भारतभूमि पर दो प्रकार का काल अनादिकाल से चला आ रहा है । एक उत्सर्पिणी काल, दूसरा अवसर्पिणी काल । उत्सर्पिणी काल का अर्थ है अवनीति की चरम सीमा तक पहुँची हुई जनता को क्रमशः उन्नति के ऊंचे शिखर पर पहुँचा देना और अवसर्पिणी का मतलब है उन्नति की चरम सीमा से क्रमशः अवनति के गहरे गर्त में डाल देना । इन उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के विभाग रूप छः छः आरे हैं और बारह भारों का एक कालचक्र होता है और एक कालचक्र का मान बीस कोड़ाकोड़ सागरोपम का बतलाया है, जिसमें कुछ न्यून अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल में तो केवल भोगभूमि मनुष्य ही होते हैं वे भद्रिक, परिणामी, अल्पकषायी, या अल्पममत्व वाले होते हैं उनको युगलिया भी कहते हैं कारण वे स्त्री पुरुष एक साथ में पैदा होते एवं मरते हैं उनका शरीर बहुत लम्बा दृढ़ सहनन और आयु बहुत दीर्घ होती है। उनके जीवन संबंधी तमाम पदार्थ कल्पवृक्ष पूर्ण करते हैं। उन मनुष्यों में असी, मसी, कसी, रूप कर्म-व्यापार नहीं होते हैं । जिन्दगी भर में अपनी अन्तिम अवस्था में एकबार ही स्त्री संग करते हैं जिससे उनके एक युगल संतति पैदा होती है, उसकी ४९, ६४, ८१ दिन-पालन पोषण कर दोनों एक साथ ही देहत्याग कर स्वर्ग में अवतीर्ण हो जाते हैं, जो युगल संतति पैदा होती है । वह भी अपनी अंतिम अवस्था में आपस में दम्पत्ति रूप में एकबार विषय सेवन कर एक युगल संतति पैदा कर स्वर्ग चले जाते हैं । इस प्रकार असंख्य काल व्यतीत कर देते हैं, तदन्तर कर्म भूमि का समय आता है, साधिक दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम कर्म भूमि का व्यवहार चलता है पुनः भोगभूमि का समय आता है इस प्रकार घटमाल की तरह अनंत कालचक्र व्यतीत हो गया है, जिसकी न तो आदि है और न अन्त है । न केवलज्ञानी ही बतला सकते हैं। अर्थात् आदि अन्त है ही नहीं। बर्तमान काल अवसर्पिणी काल है इसका स्वभाव उन्नति से गिराकर अवनति तक पहुँचा देने का है । समय-समय वर्ण गंध, रस, स्पर्श, आयुः बल संहननादि पदार्थों में अनंति २ हानि पहुँचाने का है। पहले यहां भी भोगभूमि मनुष्य थे पर भगवान ऋषभदेव के समय से वे कर्मभूमि बन गए, जो वर्तमान समय में भी विद्यमान हैं । यही कारण है कि भगवान् ऋषभदेव को जैन लोग आदि तीर्थङ्कर एवं आदिनाथ मानते हैं । वेदक मतावलंबियों ने भी भगवान् ऋषभदेव को अपने अवतारों में स्थान दिया है तथा मुसलामान भी आदिमबाबा के नाम से उन्हीं भगवान् ऋषभदेव को मानते हैं । भगवान् ऋषभवदेव के अस्तित्व का समय जैनों ने जितना प्राचीन माना है उतना न तो वेदान्तियों ने माना है और न इस्लाम धर्म वालों ने ही माना है इससे सिद्ध होता है कि वेदान्तियों एवं मुसलमानों ने जैनों का ही अनुकरण किया है । जैनों में भगवान् ऋषभदेव की मूर्तियां बहुत प्राचीन काल से ही मानी गई हैं । तब वेदान्तिकमत के प्राचीन ग्रंथ वेदों में भगवान् ऋषभदेव को अवतार होना कहीं पर नहीं लिखा है, केवल अर्वाचीन प्रयों के लेखक ने ही भगवान् ऋषवदेव का चरित्र लिखा एवं उनको अवतार माना है। खैर, कुछ भी हो आज तो भगवान ऋषभदेव को प्रायः समस्त भारतीय लोग पूज्य भाव से मानते हैं । इस विषय में शास्त्रकार फरमाते हैं किः पहले आरे में ४९ दिन, दूसरे आरे में ६४, और तीसरे आरे में ८१ दिन वर्ण व्यवस्था कैसे हुई ११५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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