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________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भूल-सुधार मेरी लिखी पुस्तकें पढ़ने वाले सज्जन इस बात से तो भलीभांति परिचित हैं कि कई अनिवार्य कारणों कहीं कहीं गलतियाँ रह जाती हैं जैसे एक तो व्याकरण ज्ञान की कमी, दूसरा उतावल से जल्दी काम करने की प्रकृति, तीसरा समय कम और काम अधिक, चतुर्थं चातुर्मास के अलावा भ्रमण में रहने से प्रूफ मिलने में गड़बड़ी तथा प्रेस वालों की लापरवाही, पाँचवाँ सहायक का अभाव और छटा नेत्रों की रोशनी कम होजाना इत्यादि कारणों से कहीं कहीं गलतियाँ रह जाती हैं। दूसरा छपाई का काम ही ऐसा है कि मेरे लिये तो उसे कारण है पर अच्छे २ विद्वान लोग प्रेस में आने जाने और सैकड़ों रूपये पडितों की तनख्वाह के देते हुए भी उनके मन्थों में अशुद्धियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इसका उपाय यही है कि रही हुई अशुद्धियों के लिये ग्रन्थ के अन्त में शुद्धिपत्र दे दिया जाय तदनुवार मैंने भी इस ग्रन्थ में रही हुई सामान्य गलतियों के लिये शुद्धिपत्र दिला दिया है । पर खास लेख लिखने में ही असावधानी रही हुई भूलों के लिये यहाँ पर सुधार लिख दिया जाता है । इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १६३ पर हुए राजा तोरमण के विषय - xxx तोरमण की राजधानी को भिन्नमाज़ में होना लिखा है यह गलती है । x x दूसरा वहाँ पर हरिवार्य रहते थे और उन्होंने तोरम को उपदेश देकर जैन धर्म का अनुरागी बनाया और तोरमण ने वहाँ भ० ऋषभदेव का जैन मन्दिर बनाकर अपनी भक्ति का परिचय दिया। x x तीसरा कुवलयमाल कथा का समय विक्रम की सातवीं शताब्दि का लिखा है । इन तीनों बातों का सुधार निम्नलिखत है जो कुवलयमाल कथा में निम्नलिखित प्रमाण मिलना हैं। यथा "तत्यत्थि जलही दइया सविधा अ चंद भायति । तीरम्मितीय पयड पव्वइया खाम रयण सोहिल्ला ॥ जत्यस्थिठिए भुत्ता पुइदं सिरि तोर शरण ||" "तस्स गुरू हरिउतो प्रायरिओ आसि गुप्त वंसाओ।" सग काले बोलणे वरिमाण सएहिं सत्तहिं गएहिं एग दिप्पूणेहिं रइया अवरयह बेलाए || इसमें कहा है कि उत्तरापन्थ में - चन्द्रभाग नदी के कनारा पर पव्वइया नामक नगर में तोरमण राजा की राजधानी थी और तोरण के गुरु थे गुपवंश के आचार्य हरिगुतसूरि । x x कुवलयमाल कथा का लेखन समय शाक संवत् सात सौ में एक दिन न्यून बतलाया है परन्तु शाक संवत के बदले भूल से विक्रम संवत् छप गया है । तीसरी बात तोरमण ने जैनमन्दिर बनाने की है। इसके लिये मैंने पन्यासजी श्रीकल्याणविजयजी म० ( उस समय के मुनि) की सेवा में जिज्ञाषु होकर कई प्रश्न भेजे थे । उनमें राजा तोरम और उनके उत्तर अधिकारी मिहिरकुत के विषय के प्रश्न भी थे । उत्तर में भीपन्यासजी महाराज ने ता० ५-८-२७ के पत्र में लिखा था कि तोरम ने भ० ऋषभदेव का मन्दिर बनाकर अपनी भक्ति का परिचय दिया । दूसरा मिहिरकुल के विषय में लिखा है कि उसके हाथ राज सत्ता आते ही जैनों ओर बोद्धों पर अत्याचार गुजारना प्रारम्भ कर दिया वह भी यहाँ तक कि सिवाय देश छोड़ने के जन, माल और धर्म की रक्षा होना असम्भव था इसलिये वहाँ का संघ मरुवर प्रान्त का त्याग करके लाटगुर्जर की ओर चले गये। उन जाने बालों में उपवेश वंश के लोग भी थे । पन्यासजी ने यह भी लिखा है कि उपकेश वंश नामकरण विक्रम की पांचवीं शताब्दि के आस पास में हुआ था इत्यादि । प्रश्नों के उत्तर के अन्त में आपश्री ने यह भी लिखा है कि मैंने मन्य प्रशास्त्रियों तथा भाष्य चूर्णियों के आधार पर ही यह उत्तर लिखा है । मैंने यह खुलासा इसलिये किया है कि कई लोगों का यह भी खयाल है कि मिहिरकुल ने केवल बोद्धों १५४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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