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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७५७-७७० की यात्रा करने को आया था । म्लेच्छों को देख कर उसको गुस्सा आया तो उसने अपने विद्याबल से एक शेर का रूप बनाकर मलेच्छों की ओर छोड़ दिया। कई मलेच्छों को मारा कई को घायल किया और शेष सब भा : छूटे जिससे संघ एवं तीर्थ की रक्षा हुई । मुनिदेवप्रभ ने अपनी विद्याशक्ति से संघ के कई कार्य किये। दूसरा सूरिजी का एक शिष्य सोमलस था जिसको देवी सरस्वती ने वचन सिद्धि का वरदान दिया था। एक दिन उनके सामने से एक मिसरी ( शक्कर ) की बालद जारही थी। आपने पूँछा कि बालद में क्या है उसने कर के भय से कह दिया कि मेरी बालद में नमक है। मुनि ने कह दिया अच्छा भाई नमक ही होगा। आगे चलकर वालदियों ने देखा तो सब बालद में नमक होगया । तब वे दौड़कर मुनि के पास आये और प्रार्थना की कि प्रभो! हम गरीब मारे जायंगे हम लोगों ने तो केवल हासल के बचाव के लिये ही शकर को नमक बतलाया था परन्तु श्राप सिद्ध पुरुष के वचन कभी अन्यथा नहीं होते हैं हमारी बालद का सब शकर नमक होगया। कृपा कर उसे पुनः शकर बनादें। मुनिजी ने दया लाकर कह दिया अच्छा भाई मिसरी होगी। अतः सब बालद का नमक मिसरी होगया। इसी प्रकार एक साहूकार के कंकरों के रत्न होगये । पट्टावलीकारों ने ऐसे कई उदाहरण लिखा है कि जिससे मुनिजी ने हजारों नहीं पर लाखों जैनेतरों को जैनधर्म की दीक्षा देकर जैनों की संख्या बढ़ाई। सूरिजी के तीसरे शिष्य गुणनिधान को वचन लब्धि प्राप्त थी कि आप का व्याख्यान सुन कर गजा महाराजा मंत्रमुग्ध बन जाते थे। केवल मनुष्यही क्यों पर देवताभी आपके व्याख्यान का सुधापान कियाकरते थे आप जहाँ जाते वहाँ राज सभा में ही व्याख्यान दिया करते थे । जिससे जैनधर्म की अच्छी प्रभावना हुई। सूरिजी के चतुर्थ मुनि पुरंधरहंस जो आगमों के पारगामी थे और साधुओं को श्रागमों की वाचना दिया करते थे। स्वगच्छ के अलावा अन्य गच्छके कई साधु एवं आचार्य वगैरह आगमों की वाचनार्थ आया करते थे। और परंधर मनि बडी उदारता से सबको बाचना दिया करते थे आपने शासन में ज्ञान का खुब ही प्रचार किया था। इस प्रकार जैसे समुद्र में अनेक प्रकार के रत्न होते हैं। उसी प्रकार सूरिजी के गन्छ रूपी समुद्र में अनेक विद्वान मुनि रूपी रत्न थे । जिन्हो ने विगच्छ एवं शासन की खूब उन्नति की। आचार्य श्री देवगुप्तसूरि मरुधर, लाट, सौराष्ट्र, कच्छ, सिन्ध पांचाल, शूर मेन 'मत्स' श्रावन्ती आदि में भ्रमण करते हुऐ मेदपाट में पधारे । आपका चतुर्मास चित्रकूट में हुआ। यह केवल चित्रकोट के लिये ही नहीं पर अखिल मेदपाट के लिये सुवर्ण समय था कि पूज्याराध्य धर्मप्राण धर्म प्रचारक प्राचार्य श्री का चतुर्मास मेदपाट की राजधानी चित्रकोट में हुआ ? आपश्री ने अपने मुनियों को आस पास के नगरों में चतुर्मास के लिये भेज दिये थे ? जिसने चारों और धर्मोन्नति एवं धर्म की खुब जागृति हो रही थी ? चित्रकोट तो एक यात्रा का धामही बन गया था ? सैकड़ो हजारों भावुक सूरिजी के दर्शनार्थ आरहे थे और वे लोग सूरिजी की अमृतमय देशना सुन अपना होभाग्य समझते थे। एक समय सूरिजी ने आचर्यश्री रत्नप्रभसूरि एवं यक्षदेवसूरिका जीवन के विषय में व्याख्यान करते हुऐ फरमाया कि महानुभावों उन महापुरुषों ने किस २ प्रकार कठिनाइयों को सहन कर उन दुर्व्यसन सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित कर महाजन संघ की स्थापना की और उनके सन्तान परम्परा के आचार्यों ने उस संस्था का किस प्रकार रक्षण पोषण और वृद्धि की इसमें आचार्यों का तो मुख्य उद्योग था ही पर साथ में बड़े २ राजा महाराजा एवं संठ साहुकारों सूरिजी का चतुर्मास चित्रकोट में ] ७८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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