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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ एक आँख में आँसू गिर रहे दूसरी आँख में हर्ष थाजो भगवान पुनः पधारे बस भगवान ने वसुमति से उड़दों के बाकुले ले लिया कवि ने अपनी युक्ति लगाई कि वसूमति कन्या होने पर भी कितनी हुशियार निकली कि भगवान ने तो सादा बारह बर्ष घोर उपसर्ग सहन किया तब मोक्ष मिली तब वसुमति ने एक मुट्ठी भर उड़दों के बाकुले देकर भगवान से मुक्ति ले ली। खैर भगवान तो बाकुला लेकर चल दिया पर पास ही में रहने वाले देवताओं ने साढ़ा बारह करोड़ सोनइयों की तथा पंच वर्ण पुष्प और सुगन्धी जल वस्त्रों की वृष्टी की और आकाश में उदघोषना कर दान और बसुमति के यश गान गाये। इतने में इधर तो सेठजी श्राये उधर से मूला को तथा राजा प्रजा को खबर हुई कि सेठ धन्ना के यहाँ सोनइयों वगैरह की वृष्टि हुई सब लोग श्राकर देखा तो बड़ा ही आश्चर्य हुआ देवताओं ने कहा अरे लोगों ? यह वसुमति सती है दीर्घ तपस्वी भ० महावीर को दान दिया है यह वसुमति चंदनबाला भगवान की पहले शिष्यनी होगी यह सोनइया इनके दीक्षा के महोत्सव में लगाना इत्यादि नगर भर में अति मंगल हो गए। __ जब भगवान महावीर को कैवल्य ज्ञान हुआ तो उधर तो इन्द्रभूति श्रादि ११ गणघर और ४४०० ब्राह्मणों को दीक्षा दी और इधर चंदनबालादि को दीक्षा दी तथा श्रावक श्राविका मिल कर चतुर्विधसंघ की स्थापना की उस चंदनबाला साध्वी के मृगावत्यादि ३६००० शिष्यरिणयाँ हुई जिसमें १४०० लावियाँ तो उसी भव में मोक्ष हो गई थी। इस प्रकार राजा दधिबाहन की चंगनगरी का ध्वस हुआ था बाद जब मगद का राजमुकाट कूणिक के सिर चमकने लगा तब राजा कूणिक ने पुनः चंपानगरी को आबाद कर अपनी राजधानी का नगर बनाया जैन शास्त्रों में चंपानगरी का बार बार वर्णन आता है । इसके कई कारण हैं अबल तो भगवान वासुपूज्य के निर्वाण कल्याण हुआ दूसरा भगवान महावीर को यहाँ देवल ज्ञान होने से वहाँ एक विशाल स्तूप बनाया था और राजा प्रसेनजित - अजात शत्रु वगैरह वह रथ यात्रादि महोत्सव करते थे तथा उन्होंने अपनी ओर से स्तम्भ वगैरह बनाये थे तथा भगवान महावीर भी यहाँ अनेक बार पधार कर उस भूमि को अपने चरण कमल से पवित्र बनाई थी और राजा श्रेणिक की कालि आदि रानियों ने इसी नगरी में भ० महावीर के पास दीक्षा ली थी इत्यादि कारणों से चंपानगरी जनों के लिए एक धाम तीर्थ माना जाता था। ५- वत्सदेश-इस देश की राजधानी कौसुबी नगरी में थी इस देश पर भी जैन राजाओं ने राज किया था जिसमें राजा सहस्रानिक, संतानिक और उदाइ राजा जैन शास्त्रों में प्रसिद्ध है। राजा संतानिक का विवाह विशाल के राजा चेटक की पुत्री मृगावती के साथ हुआ था राजा संतानिक को वहिन का नाम जयंती था और वह जैन श्रमणों की परम उपासिक भी थी उसने अपना एक मकान श्रमणों के ठहरने के लिए ही रख छोड़ा था यही कारण है कि जैन शास्त्रों में जयंती को प्रथम सेज्जातरी अर्थात् साधुओं को पहला मकान देने वाली बतलाया है वाई जयंती विधवा थी और अच्छी धर्म तत्व जानकर विदुषी श्राविका भी थी भगवान महावीर देव के पास जाकर कई प्रकार के प्रश्न पूछा करती थी और अन्त में उसने भगवान महावीर के पास श्रमण दीक्षा भी ले ली थी। राजा संतानिक की राणी भृगावती बड़ो सती साध्वी थी उसका रूप लावण्य पर उज्जैन का राजा चण्डप्रद्योतन मोहित हो उसको प्राप्त करने के लिए कई षट्यंत्र रचा था पर उसमें वह सफल नहीं हुवा। मृगावती का पति राजा संतानिक का देहान्त हुआ था उस समय उसका पुत्र बदाइ बालक ही था अतः राज का सष प्रबन्ध राणी मृगावती ही किया करती थी। राजा संतानिक अपनी वत्सदेश--काशुबी नगरी ९६७ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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