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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११७८-१२३७
बाढमेर गये वहाँ भी व्यापार में बहुतसा द्रव्योपार्जन किया तथा वहाँ ऋषभदेव का मंदिर बनवा कर प्रतिष्ठा करवाई । साधर्मीभाइयों को स्वामीवात्सल्य देकर पहरवाणी दी । पुष्कल द्रव्य व्यय किया । इत्यादि ।
२१- सेठ मोतीजी फुफहारा गोत्र, २२ - सेठ दानजी, पीपलिया गौत्र, २३.--सेठ लालजी भारद्वाज गोत्र, २४-सेठ श्री सजी नेण गोत्र इन चारों ने अपनी जिन्दगी में ही जो कुछ किया था और आगे इनके संतान न होने से परम्परा नहीं चली।
इन २४ गौत्रों के अलावा ४८ गोत्र ओर भी हैं पर उन गोत्रों की वंशावली हमको नहीं मिली और जो २४ गोत्रों की वंशावली मिली है उनकों भी मैंने स्थानाभाव से संक्षेप में एक-एक गोत्र वालों का एक-एक, दो, दो, उदाहरण नमूने के तौर पर लिख दिये हैं कारण हजार मन वस्तु का नमूना एक मुट्ठी भर से ही पहचाना जासकता है अतः पाठक उपरोक्त संक्षिप्त हाल से ही श्राप सेठिया जाति के उदारवीर नररत्न को पहचान सकेंगे कि उन्होंने देव गुरु धर्म की कृपा से कितना द्रव्योपार्जन किया और उसको पानी की तरह धर्म कार्यों में किस तरह वहा दिया जो उपरोक्त उदाहरणों से पाठकों को ज्ञात हो गया होगा। उस जमाने के लोग बड़े ही भद्रिक होते थे उन को गुरु महाराज जैसा उपदेश देते थे वैसा ही करने में सदैव कटिबद्ध रहते थे।
जिस समय का हाल हमने लिखा है उस समय धार्मिक कार्यों में मुख्य एक दो मंदिर बनाना, दूसरा तीर्थों का संघ निकालना, तीसरा आचार्यश्री को चातुर्मास करवा कर अपने घर से महोत्सव कर सूत्र बचाना ज्ञान पूजा कराना, गुरु के सामने गहुली करना । व्रतों के डद्यापन करना निर्बल साधर्मीभाइयों को सहायता देना काल दुकाल में गरीबों की सहायता करना इत्यादि इन शुभ कार्यों में द्रव्य व्यय करके वे अपने को कृतार्थ हुए समझते थे और इन सब बातों का ही उस समय गौरव एवं महत्व था शक्ति के होते हुए उपरोक्त कार्य से कोई भी कार्य क्यों न हो पर अपने जीवन में वे अवश्य करते थे।
आज से कुछ वर्षों पहले गोड़वाड़ में ऐसी प्रवृत्ति थी की अपने घर पर कोई भी ऐसा प्रसंग होता तो ५२ गांव, ६४ गांव, ७२ गांव, ८४ गांव, और १२८ गांवों को अपने यहां बुला कर उनको मिष्टान्नादि का भोजन करवा कर पहरावणी दिया करते थे जिनमें कोई तो ताबां पीतल के बर्तन देते कोई वस्त्र, कोई चांदी की चीजे जैसी अपनी शक्ति पर इन कार्यों को करके वे कृतार्थ हुए अवश्य समझते जब बीसवी गई गुजरी शताब्दी में भी उन प्राचीन प्रवृत्ति का नमूना मात्र था तब उस समय जैन समाज उन्नति का उच्चे शिखर पर पहुंची हुई थी वे सुवर्ण मुद्रिकाएं वगैरह दें, उसमें आश्चर्य की बात ही क्या ?
हां, वर्तमान में बीस, पच्चीस, या सौ पचास रुपये की सर्विस (नौकरी) करने वाले पूर्व लिखित बातों को कल्पना मात्र मानलें तो कोई आश्चर्य नहीं कारण वे अपनी आजीवीका भी बड़ी मुश्किल से चलाते हैं उनके मगज में इतनी उदारता सुनने का भी स्थान नहीं हो तो यह स्वभाविक ही है । यदि वे मगजमें सुगन्धी तेल की मालिश कर किसी सुंदर बाटिका में बैठ कर शांत चित्त से एक-ऐक शताब्दी में जैन समाज कैसी थी जैसे बीसवी शताब्दी के पूर्व मन्नीसवीं और उन्नीसवीं के पूर्व अठारहवीं, अठारहवीं के पूर्व सतारहवीं शताब्दी में जैन समाज कैसी थी इसी प्रकार एक-एक शताब्दी आगे बढ़ते जायं तो ज्ञात हो सकेगा है कि एक समय जैन समाज तन धन से बड़ी समृद्धिशाली था और एक-एक धार्मिक एवं समाजिक कार्यों में लाखों तो क्या पर करोड़ों का द्रव्य व्यय कर देते थे । उनिसवी शताब्दी में जैसलमेर के पटवों ने संघ निकाल जिसमें पचवीस लक्ष द्रव्य खर्च किये थे। सेठिया जाति के दानमीर
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