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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२० - ९५८ ने लाभालाभ का कारण जान चतुर्मास की स्वीकृति देदी बस फिर तो कहना ही क्या था सब का उत्साह खूब बढ़ गया । शाह सालग ने चतुर शिल्पज्ञ कारीगरों को बुलाकर भगवान महावीर का बावन देहरी वाला आलीशान मन्दिर बनाना शुरु कर दिया दूसरी तरफ लिपीकारों को बुलाकर श्रागम लिखाना प्रारम्भ कर दिया और चतुर्मास की आदि में महा महोत्सव पूर्वक पंचमांग श्री भगवती सूत्र व्याख्यान में बंचवाना शुरू करवा दिया। सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं आत्मिक कल्याण पर ही होता था जिससे जनता को बड़ा भारी आन्नद आया करता था शाह सालग तो सूरिजी का इतना भक्त बन गया कि उनका मन भ्रमरा सूरिजी के चरणों से एक क्षण भर भी पृथक रहना नहीं चाहता था उसके लिये केवल एक तीर्थों का संघ निकालना ही शेष कार्य रह गया तो एक दिन सालग ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! हमारे दो काम तो हो रहे हैं पर कृपाकर संघ के लिये बतलाइये क्या किया जाय सूरिजी ने कहा सालग " श्रेयांस बहु विघ्नानि" अच्छे कार्य में कई विघ्न आया करते हैं इसलिये शास्त्रकारों ने कहा कि " धर्मस्य त्वरितागतिः” धर्म कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिये अतः पहिले यह विचार करले कि संघ शत्रु - जय का निकलना है या सम्मेत शिखरजी का, इसपर सालग ने कहा यदि दोनों तीथों की यात्रा हो जाय तो अच्छा है सूरिजी ने कहा सालग एक साथ दोनों तीथों की यात्रा होना तो संभव है कारण इन दोनों तीर्थों में अन्तर विशेष होने से साधु लोग पहुँच नहीं सकते हैं हाँ एक बार एक तीर्थ की ओर दूसरी बार दूसरे तीर्थ की यात्रा हो सकती है फिलहाल एक तीर्थ की यात्रा का निर्णय करलें? सालग ने कहा कि पहिले सम्मेत शिखर की यात्रा करनी ठीक होगी सूरिजी ने अपनी सम्मति दे दी और सालग ने अपने १९ पुत्रों को बुलाकर संघ सामग्री एकत्रित करने का आदेश दे दिया और चातुर्मास समाप्त होने के पूर्व ही सब प्रान्तों में आमन्त्रण भेज दिया साधु साध्वियों की भी विनती करली जब चातुर्मास समाप्त हुआ तो मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी को साग को संघपति पदार्पण कर श्राचार्य सिद्धसूरि के अध्यक्षत्व में संघने प्रस्थान कर दिया संघ बड़ा ही विशाल था कई पांच हजार साधु साध्वियों एक लक्ष से अधिक नरनारी ८४ देरासर चौदह हस्ती ११ आचार्य तीनसौ दिगम्बर साधु ७०० अन्य मत्त के साधु इत्यादि क्रमशः रास्ते के तीर्थों की यात्रा करता हुआ संघ सम्मेतशिखर जी पहुँचा वहाँ की यात्रा कर सबको बड़ा ही आनन्द हुआ। एक समय सूरिजी ने कहा सालग अब अवसर श्रागया है यह बीस तीर्थकरों की निर्वाण भूमि है चेतना हो तो चेतलो जो समय गया वापिस नहीं आता है बस । सालग की आत्मा पहिले से ही निर्मल थी उस पर भी सूरिजी का संकेत, फिर तो कहना ही क्या; सालग ने अपने सब पुत्रों को बुलाकर कह दिया कि मेरा विचार तो दीक्षा लेने का है पुत्रों ने बहुत कहा कि आपको दीक्षा ही लेना है तो पुनः संघ सहित चन्द्रावती पधारें वहां दीक्षा रावें पर सालग का आग्रह तीर्थ पर ही था सालग के बड़े पुत्र संगण को सब घर का भार एवं संघपति की माला देकर शाह सलिग ने सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा स्वीकार करली अहाहा - के शुभ कर्मों का उदय होता है तब किस प्रकार कल्याण हो जाता है, एक यज्ञ करने वाला इतना बड़ा सेठ जिसकी भावना बदल जाने से कितने के कल्याण का कारण बना है । से साध्वियों के पास अध्यक्षत्व में पूर्व के तीथों की यात्रा करते हुए बहुत साधु संघ लौटकर पुनः मरूधर एवं चन्द्रावती आया और सांगण ने स्वामिवात्सल्य करके संघ को प्रत्येक लादू में पांच-पांच सुवर्ण मुद्रिका और बढ़िया वस्त्रों की प्रभावना देकर विसर्जन किया । मनुष्य संघपति सांगण Jain Educal सेठ सांगण की और से तीर्थों का संघ ]late & Personal Use Only ९०६ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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