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________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२४-८४० भाग्यशाली है शासन के हितचिंतक एवं गच्छ का अभ्युदय करने वाले हैं पर यह पंचम पारा महाकर है इनके प्रभाव से कोई भी बचना बड़ा ही मुश्किल है । पूज्यवर ! आपके पूर्वजों ने महाजन संघ रूपी एक संस्था स्थापन करके जैनधर्म का महान् उपकार किया है अगर यह कह दिया जाय कि जैन धर्म को जीवित रक्खा है तो भी अतिशय युक्ति नहीं है और उनके सन्तान परम्परा में आज तक बड़ी सावधानी से महा. जन संघ का रक्षण पोषण एवं वृद्धि की है इसका मुख्य कारण इस गच्छ में एक ही प्राचार्य की नायकता में चर्तुविध श्री संघ चलता आया है पर भविष्य में इस प्रकार व्यवस्था रहनी कठिन है तथापि आप भाग्य. शाली है कि आप का शासन तो इसी प्रकार सुख शान्ति में रहेगा इत्यादि । सूरिजी ने कहा देवीजी श्राप का कहना सत्य है पूर्वाचार्यों ने इसी प्रकार महान उपकार किया है और इसमें आप लोगों की भी सहायता रही है इत्यादि वार्तालाप हुआ बाद वन्दन कर देवियां तो चली गई पर सूरिजी को बड़ा भारी विचार हुआ कि देवियों ने भले खुल्लमखुल्ला नहीं कहा है पर उनके अभिप्रायों से कुछ न कुछ होने वाला अवश्य है पर भवितव्यता को कौन मिटा सकता है। जिस समय आचार्य यक्षदेवसूरि श्रार्बुदाचल तीर्थ पर विराजते थे उस समय सौराष्ट्र में विहार करने वाले वीर सन्तानिये मुनि देवभद्रादि बहुत से साधुओं ने सुना कि आचार्य यक्षदेवसूरि अार्बुदाचल पर विराजते है अतः वे दर्शन करने को आये भगवान आदीश्वर के दर्शन कर सूरिजी के पास वन्दन करने को आये। सूरिजी ने उनका अच्छा सत्कार किया। देवभद्रादि ने कहा पूज्याचार्य देव आप बड़े ही उपकारी है आपके पूर्वजों ने अनेक कठनाइयों को सहन कर अनार्य जैसे बाममार्गियों के केन्द्र देशों में जैन धर्म रुपी कल्पवृक्ष लगाया और श्राप जैसे परोपकारी पुरुषों ने उनको नवप्लव बनाया जिसके फल आज प्रत्यक्ष में दिखाई दे रहे है अतः हम एवं जैन समाज आपके पूर्वजों एवं आपका जितना उपकार माने उतना ही थोड़ा है इत्यादि । सूरिजी ने कहा महानुभावों! आप और हम दो नहीं पर एक ही है उपकारी पुरुषों का उपकार मानना अपना खास कर्तव्य हैं साथ में उन पज्य पुरुषों का अनुकरण अपने को ही करना चाहिये श्राप जानते हो कि आज बौद्धों का कितना प्रचार हो रहा हैं यदि अपुन लोग धर्म प्रचार के लिये कटिवद्ध होकर प्रत्येक प्रान्त में बिहार नहीं करे तो उन पूर्वाचायों ने जिस जिस प्रान्त में धर्म के बीज बोये है वे फला फूला कैसे रह सकेंगे। इत्यादि वार्तालाप के पश्चात् जिन २ मुनियों के गोचरी करनी थी वे भिक्षा लाकर आहार पानी किया परन्तु अधिक साधुओं के तपस्या ही थी अहा हा पूर्व जमाना में साधुओं में कितनी वात्सल्यता कितनी विशाल उदारता और कितनी शासन एवं धर्म प्रचार की लग्न थी जहां कभी आपस में साधुओं का मिलाप होता वहां ज्ञान ध्यान एवं धर्म प्रचार की ही बातें होती थी आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने शिष्यों के साथ आये हुए मुनियों को भी श्रागमों की वाचनादि अनेक प्रकार से अध्ययन करवाया जिससे उन मुनियों को बड़ा भारी आनन्द हुआ तथा वे मुनि सरिजी की सेवा में रहकर और भी ज्ञान प्राप्ति करने का निश्चय कर लिया । इतना ही क्यों पर वे सूरिजी के विहार में भी साथ ही रहे सूरिजी बार्बुदाचल से विहार कर शिवपुरी पधारे और वहां पर बाप्पनाग गौत्रीय शाह शोभन ने एक कोटी द्रव्य व्ययकर भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा करवा कर शाह शोभनादि कह नर नारियों को दीक्षा दी जिस समय सूरिजी महाराज मार्बुदाचल के आस पास में भ्रमन कर रहे थे ठीक उस समय कभी कभी विदेशी म्लेच्छा का भी भारत पर आक्रमण हुए करते थे वे देवभद्रादि मुनियों का सूरिजी की सेवा में ] ८३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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