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________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन [ओसवाल सं० ११७८-१७३२ वाले को नहीं रुचता है तो इसमें घृत का क्या दोष है ? इत्यादि वाद विनोद होता रहा । अब पं० धनपाल ने अपना द्रव्य सात क्षेत्र में लगना प्रारम्भ कर दिया । इनमें मुख्य क्षेत्र जिन चैत्य होने से उसने भगवान आदिनाथ का विशाल मन्दिर बनाकर महेन्द्रसूरि से प्रतिष्ठा करवाई और 'जयजंतुकाय' नामक पांच सी गाथा बना कर प्रभु की स्तुति की। एक समय राजा भोज ने पं० धनपाल से कहा कि आप मुझे कोई जैनकथा सुनावें । इस पर नवरस संयुक्त तिलक मञ्जरी नामक बारह हजार श्लोक वाला अपूर्व प्रन्थ बनाकर उसको तादिवेताल शाति सूरि से संशोधन करवाया और राजा भोज को सुनाया। राजा ने भी कथा के नीचे स्वर्ण थाल रख कर कथा को आनन्द पूर्वक सुना और धनपाल को कहा कि इस कथा में कुछ रहो बदल करो। जैसे मङ्गलाचरण में आदिनाथ के बदले शिव का नाम, अयोध्या के स्थान पर धारा नगरी, शक्रावतार चैत्य की जगह महा. काल, भगवान् के स्थान शंकर और इन्द्र के स्थान मेरा नाम ( भोज ) रख दो तो तुम्हारी कथा या चन्द्रदिवाकर अमर बन जायगी। पं० धनपाल ने कहा-हे राजन् ! जैसे ब्राह्मण के हाथ में पय पात्र है और उसमें दारू को एक बूंद पड़ने से वह पय पात्र अपवित्र हो जाता है इसी प्रकार आपके कथनानुसार नाम बदलने से ग्राम नगर देश और राजा को हानि पहुँचती है-पुण्य क्षय हो जाता है। पण्डित के वचन सुन कर राजा को बहुत क्रोध आया। उसने कोपावेश में पुस्तक को लेकर अग्नि में डाल दी जिससे वह भस्म हो गई । इससे धनपाल को भी क्रोध आया वह राजा को उपालम्ब देकर अपने घर पर चना आया । देव पूजन व भोजन वगैरह की चिन्ता को छोड़ कर वह एक खाट पर पड़ गया। इतने में उनकी पुत्री ने आकर चिन्ता का कारण पूछा तो पण्डितजी ने सब हाल कह सुनाया। इस पर पंडित की कन्या ने कहा-इसका श्राप फिक्र क्यों करते हैं ? आपकी कथा मेरे कण्ठस्थ है। आप देव पूजन व भोजन कर लीजिये मैं आपको कथा सुना दंगी। कवीश्वर ने सब कार्यों से निवृत्त हो पुत्री से कथा सुनी पर कोई शब्द उसको बाई नहीं थे अतः उनके स्थान में नये शब्द लगा कर कवीश्वर ने उस कथा को जैसे तैसे पूर्ण की धनपाल के न आने से राजाभोज ने उसकी खबर करवाई । अन्त में ज्ञात हुआ कि धनपाल, मेरे अन्याय के कारण चला गया है । इस पर राजा को अपने कार्य का बहुत ही पश्चाताप हुआ पर अब क्या किया जा सकता था ? भरोंच नगर में सूरदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके सावत्री नाम की स्त्री थी तथा धर्म और शमें नामके दो पुत्र थे और एक पुत्री भी थी। एक समष सूरदेव ने धर्म पुत्र को कहा कि कुछ श्राजीविका का साधन कर । इस पर रुष्ट हो धर्म, घर से चला गया। क्रमशः वह जंगले में पहुँचा बहां सरस्वती देवी ने प्रसन्न होकर उसको वरदान दिया। पश्चात् कई असे से वह धारानगरी में आया और राजा को कहा कि-मैंने बहुत से वादियों को पराजित किया है अत; आपकी सभा में भी कोई पण्डित हो तो मेरे सामने लावे मैं उसे बाद में पराजित करूंगा। राजा भोज की सभा में एक भी ऐसा पण्डित नहीं था जो धर्म पण्डित के साथ वाद करने को तैयार हो । उस समय राजा भोज को धनपाल याद आया । राजा भोजने अपने प्रधान पुरुषों को कवीश्वर के पास में भेजा और नम्रता पूर्वक कहलाया कि मेरे अपराध को माफ करो राजा भोज और धारा के पं० धनपाल को तिलक मंत्रकी कथा १२३९ Jain Education International www.www For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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