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विकृतिविज्ञान क्योंकि वहां रक्त में जीवाणु विरोधी शक्ति विशेष रूप से उत्पन्न हो जाती है। यहाँ पर रोग की भयानकता के कारण वह शक्ति उत्पन्न होने के पूर्व मृत्यु हो जाती है।
इस रोग में अनुतीव्र रोग के समान ही लक्षण देखे जाते हैं । पर यहाँ उद्भेद बड़े तथा भंगुर होते हैं तथा कपाटों में ऊति का नाश अत्यधिक देखा जाता है विशेष करके गुह्य गोलाणु (प्रमेहाणु)तो इस ऊतिनाश के लिए बहुत प्रसिद्ध है। मृत्यूत्तर परीक्षा में कपाटों का अधिकांश पूर्णतः विलुप्त पाया जाता है । हृदज्जु उखड़े हुए तथा विदीर्ण ( ruptured ) मिलते हैं। अन्तःशल्य एवं ऋणास्र खूब मिलते हैं इसके कारण विस्थानान्तरित विद्रधियाँ ( metastatic abscesses ) अनेक स्थानों पर मिलती हैं। रोग की मारकता का उल्लेख हम कई बार कर चुके हैं। फुफ्फुस गोलाणुज व्याधि अधिक मारक होती है।
जीर्ण हृदन्तश्छदपाक
( Chronic Endocarditis ) हृदन्तश्छद के चिरकालीन व्रणशोथ के ३ प्रमुख कारण होते हैं:
१-आमवात २-फिरङ्ग
३-जारठिक विहास आमवातज तीव्र हृदन्तश्छद पाक के उपरान्त जीर्ण पाक होता है। कपाटों में तन्तूत्कर्ष होने से कपाटीय दलों में विकर्षण (distortion) हो जाता है जिसके कारण सन्निरोधोत्कर्ष या कपाटों की अकार्यकरता (incompetence ) देखी जाती है। चूर्णियन के क्षेत्र भी देखे जाते हैं जिसके कपाट पूर्णतः कठोर हो जाते हैं।
फिरङ्गजन्य पाक का वर्णन फिरङ्ग के प्रकरण में देखना आवश्यक है।
जारठिक विहास (senile degeneration) में हृत्कपाटीय दलों पर चूर्णियित पदार्थ चमकीलवत् जम जाता है। उसी पर रक्त के आतंच बनते रहते हैं। यह महाधामनिक कपाटों पर अधिक होता है । ये कपाट एक दूसरे के साथ मिल जाते हैं और चूर्णियित हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप महाधामनिक सन्निरोधोत्कर्ष (aortic stenosis ) हो जाता है जिसके कारण वामनिलय प्राचीर अतिपुष्ट हो जाती है । यदि अतिपुष्टि के बाद समतोलन ( compensation ) में गड़बड़ी दिखाई देती है तो निलय विस्फारितहो जाता है जिसके कारण द्विपत्रककपाट की अकार्यकरता हो जाती है।
हृत्पेशी पाक ( Myocarditis) यह तीव्र और जीर्ण दोनों प्रकार का होता है। हम पहले कह चुके हैं कि हृत्पेशी पर आमवात और दण्डाणु दोनों का ही प्रभाव पड़ता है। इसीलिए इन दोनों के द्वारा होने वाले पाकों के वर्णन में हृत्पेशी पर जो प्रभाव होता है उसे हमने विशेष करके अङ्कित किया है। तीन हृस्पेशीपाक भी दो प्रकार का होता है एक तीव्र वैषिक
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